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________________ २२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् - अब इन चारोंही तत्त्वोंसहित गरुडका स्वरूप कहते हैं गगनगोचरामूर्तजय विजयभुजङ्गभूषणोऽनन्ताकृतिपरम विभुर्नभस्तलनिलीनसमस्ततत्त्वात्मकः समस्तज्वररोगविषधरोड्डामरडाकिनीग्रहयक्षकिन्नर नरेन्द्रारिमारिपरयन्त्रतन्त्रमुद्रामण्डलज्वलनहरिशरभशार्दूलद्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्गनिर्मूलनकारि सामर्थ्यः मस्तगारुडमुद्राडम्बरसमस्ततत्त्वात्मकः सन्नात्मैव गारुडगीर्गोचरत्वमवगाहते । इति विपतत्त्वम् ॥ १५ ॥ परिकलितस जयं अर्थ - आकाशगोचरही है मूर्ति जिनकी ऐसे विजय नामके दो सर्प हैं भूषण जिसके, तथा अनन्ताकृति परमविभु अर्थात् आकाशकी आकृतिस्वरूप सर्वव्यापक, तथा आकाशमंडलमें लीन है पृथ्वी वरुण वह्नि वायुनामा समस्त तत्त्व जिसमें, तथा समस्त, वात पित्त श्लेष्मसे उत्पन्न ज्वर आदिरोग, अनेक जातिके सर्प आदि विषधर जीव, महाभय, डाकिनी, कुत्सित (खोटे मंत्रकर्तृक तथा पिशाच, यक्ष, भैरवादि किन्नर, अश्वमुख, व्यंतर, नरेन्द्र (राजा), शत्रु, महामारी, तथा परके किये यन्त्र, तन्त्र, मुद्रामंडल, तथा अग्नि, सिंह, शरभ, अष्टापद, शार्दूल, व्याघ्र, हस्ती, दैत्य, व्यन्तरादिक दुष्टदुर्जनादिक सबके किये हुए उपसर्गको निर्मूलन करनेवाला है सामर्थ्य जिसका, ऐसा तथा रचा है समस्त गारुड मुद्रामंडलका आर्डवर जिसने ऐसा, तथा पृथ्वी आदि तत्त्वखरूप हुआ है आत्मा जिसका ऐसा गारुडगी: के नामको अवगाहन करनेवाला गारुड ऐसा नाम आत्माही पाता है । भावार्थ – पहिले चार तत्त्वोंके रूप कहे सो गरुडतत्त्वके विशेषणरूप कहे गये, उन चारों तत्त्वोंसहित यह गरुडतत्त्व हैं सो यह आत्माकी ही सामर्थ्यका वर्णन है । यह आत्मा ध्यानके बलसे अनेकसामर्थ्यसहित होता है । उसमें देहका रूप है वह तो सब पुद्गलका रूप है और आत्मा है सो अमूर्तक ज्ञान आदि गुणोंकी शक्ति स्वरूप है, उसके ध्यानके प्रभावसे अनेक व्यक्तिरूप चेष्टा होती है, इसप्रकार जानना १५ ॥ आगे कामतत्त्वका रूप कहते हैं, - यदि पुनरस सकलजगचमत्कारिकार्मुकास्पदनिवेशितमण्डलीकृतसरसेक्षुकाण्डस्वर सहित कुसुम सायकविधिलक्ष्यीकृतदुर्लभमोक्षलक्ष्मीसमागमोत्कण्ठितकठोरतर मुनिमनाः । स्फुरन्मकरकेतुः । कमनीयसकलललनावृन्दवन्दित सौन्दर्यरतिकेलिकलापदुर्ललित चेताश्चतुरश्रेष्टितधूभङ्गमात्र वशीकृतजगत्रय स्त्रैणसाधनो दुरधिगमागाधगहून रागसागरान्तद्दलितसुरासुरनरभुजगयक्षसिद्धगन्धर्वविद्याधरादिवर्गः । स्त्रीपुरुष १ गरुडविद्याको जानै सो गारुड-और गी कहिये शब्दमय - सो गारुडगी ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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