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________________ ज्ञानार्णवः । २२५ न्दशूकरक्षिताशुशुक्षणिरवर्णविस्फुरितविस्तीर्णस्वस्तिकोपपन्नत्रिकोणतेजोमयपुरमध्यवद्धवसतिवस्ताधिरूढज्वलदलातहस्तानलमुद्रोद्दीपितसकललोकवह्निविरचितोर-प्रदेश इति वह्नितत्त्वम् ॥ १३ ॥ ___ अर्थ-सर्वत्र फैलती हुई अपने शरीरकी ज्वालाकी पंक्तिसे व्याप्त किया है समस्त दिशाओंका वलय (मण्डल) जिन्होंने ऐसे अनन्त और कुबलिक नाम धारक वात्मण जातिके दो सोसे रक्षित और रंकाररूप वीजाक्षरसे स्फुरायमान विम्तीर्ण तीन कूटोंपर तीन स्वस्तिक (साथिया) सहित ऐसा त्रिकोण तेजोमय देदीप्यमान पुर अग्निमंढल उसके वीचमें बाँधी है वस्ती जिसने ऐसा, तथा वस्ताधिरूढ कहिये बकरेपर चढ़ा हुआ, प्रज्वलित अलात कहिये जलता हुआ काष्ठ है हाथमें जिसके ऐसी अग्निकी मुद्रासे समस्त लोकको उद्योत करनेवाले वह्नि दिक्पालसे रक्षित है उर प्रदेश जिसका ऐसा तीसरा गरुडका विशेषण हुआ । यह अग्नितत्त्वका स्वरूप है ॥ १३ ॥ आगे वायुतत्त्वका रूप कहते हैं,: अविरतपरिस्फुरितफूत्कारमारुतान्दोलितसकलभुवनाभोगपरिभूतषट्चरणचक्रवालकालिमानिजतनुसमुच्छलहुलकान्तिपटलपिहितनिखिलनभस्तलशुद्रकाद्रवेयवलयितमरुन्मुद्रोपपन्नविन्दुसन्दोहसुन्दरमहामारुतवलयत्रितयात्मकसकलभुवनाभोगवायुपरिमण्डलनभखत्पुरान्तर्गतवाहनकुरङ्गवेगविहरणदुर्ललितकरतलकलितचलविटपकोटिकिशलयशालशालिमरुन्मुद्रोच्छलितसकलभुवनपवनमयवदनारविन्दइति वायुतत्त्वम् ॥१४॥ __ अर्थ-निरन्तर स्फुरायमान होता जो फूत्कारसे वहता हुआ पवन, उसके द्वारा कम्पायमान किया जो सकल भुवनका आभोग (मध्य) उसके द्वारा उड़ाये हुए प्रमरोंके समूहकी कालिमाके समान, तथा उनसे मिली अपने शरीरकी उछलती हुई प्रचुर कान्तिके पटल (समूह)से आच्छादित किया है समस्त आकाशमंडल जिन्होंने ऐसे तक्षक और महापद्म नामक शुद्ध जातिके दो सोसे वेष्टित, और मरुत् मुद्रासे मंडित और विन्दुओंके (जलकणोंके ) समूहसे सुन्दर महामारुत प्रचंड पवनके वलयके त्रितय (त्रिक) स्वरूप सकलभुवनके मध्यमें वायुके परिमंडल स्वरूप नभम्तल पुटके अन्तर्गत तिष्ठा हुआ ऐसा और वाहन जो वातप्रमी जातिका हिरण उसके वेगसे विहार करनेमें दुर्ललित (लीलायुक्त) हाथोंसे पकड़े हुए चलायमान शाखाओंके अग्रभागमें किशलय (कॉपल) जिसके ऐसे शालवृक्षकी शोभासहित मस्तमुद्रासे उत्पन्न हुआ सफलमुवनोंमें पवन उसमय है मुखकमल जिसका ऐसा यह गरुडका चौथा विशेषण हुआ और वायतत्त्वका खरूप कहा गया ॥ १४ ॥ २९
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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