SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०७ ज्ञानार्णवः । लुप्यते मानतः पुंसां विवेकामललोचनम् । प्रच्यवन्ते ततः शीघ्रं शीलशैलाग्रसंक्रमात् ।। ५१ ।। अर्थ-इस मानकपायसे पुरुषोंके भेदज्ञानरूप निर्मल लोचन (नेत्र) लोप हो जाते हैं, जिससे शीघ्रही शीलरूपी पर्वतके शिखरके संक्रमसे (चलनेसे) डिग जाते हैं। क्योंकि विवेक जब नहीं रहा तो शील कहां? ॥ ५१ ॥ ज्ञानरत्नमपाकृत्य गृह्णात्यज्ञानपन्नगम् । गुरूनपि जनो मानी विमानयति गर्वतः ॥५२॥ अर्थ-मानी पुरुष गर्वसे अपने गुरुको भी अपमानित करता है सो मानी ज्ञानरूपी रत्नको दूर करके अज्ञानरूपी सर्पको ग्रहण करता है ॥ ५२ ॥ करोत्युद्धतधीर्मानादिनयाचारलंघनम् । विराध्याराध्यसन्तानं खेच्छाचारेण वर्तते ॥५३॥ अर्थ-मानसे उद्धतबुद्धि पुरुष गर्वसे विनयाचारका उल्लंघन करता है और पूज्य गुरुओंकी परिपाटी (पद्धति)को छोडकर स्वेच्छाचारसे प्रवर्त्तने लग जाता है ।। ५३ ।। मानमालम्व्य मूढात्मा विधत्ते कम निन्दितम् । । कलङ्कयति चाशेपचरणं चन्द्रनिर्मलम् ॥ ५४॥ अर्थ-इस मानको अवलम्बन कर मूढामा निंदित कार्यको करता है तथा चन्द्रमाकी समान निर्मल अपने समस्त सदाचरणोंको कलंकित करता है ।। ५४ ॥ गुणरिक्तेन किं तेन मानेनार्थः प्रसिद्ध्यति । तन्मन्ये मानिनां मानं यल्लोकव्यशुद्धिदम् ॥ ५५॥ ___ अर्थ-गुणरहित रीते मानसे कौनसे अर्थकी सिद्धि है । वास्तवमें मानी पुरुषोंका वही मान कहा जा सकता है जो इस लोक और परलोककी शुद्धि देनेवाला हो । भावार्थयद्यपि मानकषाय दुर्गतिका कारण है, तथापि मान दो प्रकारके हैं; एक तो प्रशस्त मान और एक अप्रशस्त मान । जिस मानके वशीभूत होकर नीचकार्योको छोड़ ऊंचे कार्यों में प्रवृत्ति हो वह तो प्रशंसनीय प्रशस्त मान है और जिस मानसे नीचकार्योंमें प्रवृत्ति हो और जो परको हानिकारक हो वह अप्रशस्त मान है- कोई बड़ा विद्वान् वा उच्चव्रतधारी हो और कोई असदाचारी वा धनाढ्य पुरुष उस विद्वान् वा सदाचारीका आदर सत्कार न करै, मनमें अपने धनके घमंडसे उसे हलका समझै तो उसके पास कदापि विद्वानों वा व्रतधारियोंको नहिं जाना चाहिये । क्योंकि उनके पास जाने वा उनकी हां में हां मिलानेसे उच्च ज्ञान और आचरणका (धर्मका) अपमान होता है । यह विधान वा उदाहरण गृहस्थोंके लिये है, मुनियोंके लिये नहीं हैं ॥ ५५ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy