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________________ २०६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् __ अर्थ-अहो देखो ! अनेक मुनिगणोंने संसारसे भयभीत होकर प्रवल (तीव्र) तपादिकसे उदयमें लाकर समस्तं कर्मोको शीघ्र ही नष्ट करदिया वे कर्म यदि उपसर्गादिके निमित्तसे अपनी स्थिति पूरी करके स्वयं उदयमें आये हैं तो अमूल्य मोक्षसुखकी सिद्धि के लिये उद्यम करनेवाले धीरपुरुषोंको मनोभिलाषपूर्वक क्या उपसर्गादि नहीं सहने चाहिये ? अर्थात् अवश्य ही सहने चाहिये । क्योंकि जिन कर्मोंको तीव्र तप करके नष्ट करना वे खयं स्थिति पूरी करके उदयमें आये तो उनका फल सह लेनेसे सहजहीमें उनकी निर्जरा हो जाती है-सो यह तो उत्तम लाभ है । सो हर्षपूर्वक सहनी चाहिये । यही मोक्षसिद्धिका उद्यम सफल हो सक्ता है ॥४७॥ इसप्रकार क्रोधकषायका वर्णन करके उसके निमित्त आनेपर ऐसी भावना करनी वर्णन किया गया । दोहा। उपसर्गादिक क्रोधके, निमित भये मुनिराज । क्षमा धरै क्रोध न करे, तिनके ध्यानसमाज ॥ इति क्रोधकषायवर्णनम् । अब मानकषायका वर्णन करते हैं, कुलजातीश्वरत्वादिमविध्वस्तबुद्धिभिः। सद्यः संचीयते कर्म नीचैर्गतिनिबन्धनम् ॥४८॥ अर्थ--कुल, जाति, ऐश्वर्य, रूप, तप, बल विद्या और धन इन आठ भेदोंसे जिनकी बुद्धि बिगड़ गई है अर्थात् मान करते हैं वे तत्काल नीच गतिके कारण कर्मको संचय करते हैं । अर्थात् कोई ऐसा समझै कि मान करनेसे मैं ऊंचा कहलाऊंगा सो इस लोकमें मानी पुरुष ऊंचे तो नहीं होते किन्तु नीच गतिको प्राप्त होते हैं- ॥४८॥ मानग्रन्थिमनस्युचैर्यावदास्ते दृढस्तदा । तावद्विवेकमाणिक्यं प्राप्तमप्यपसर्पति ॥४९॥ अर्थ-हे मुने ! जबतक तेरे मनमें मानकी गांठ अतिशय दृढ़ है तबतक तेरा विवेकरूपी रत्न प्राप्त हुआ भी चला जायगा । क्योंकि मानकषायके सामने हेय उपादेयका ज्ञान नहीं रहता ॥ १९॥ प्रोत्तुङ्गमानशैलाग्रवर्तिभिलसवुद्धिभिः। क्रियते मार्गमुल्लङ्घय पूज्यपूजाव्यतिक्रमः॥५०॥ ___ अर्थ-जो पुरुष अति ऊँचे मानपर्वतके अग्रभागमें (चोटीपर) रहते हैं वे नष्टबुद्धि हैं. ऐसे मानी समीचीनमार्गका उल्लंघन करके पूज्यपुरुषोंकी पूजाका (प्रतिष्ठाका) लोप कर देते हैं । भावार्थ-मानी पुरुष पूज्यपुरुषोंकाभी अपमान करनेमें शक्कित नहीं होते॥५०॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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