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________________ २०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-हे. आत्मन् ! तूने पूर्वजन्ममें असाता कर्म बांधा था उसीका. फल यह दुर्वचनादिक हैं सो इनको उपायरहित समझकर आगामी दुःखकी शान्तिके लिये स्वस्थ चित्तसे सहन कर । भावार्थ-जो दुर्वचनादिक पूर्वोपार्जित असाता कर्मका फल है सो उसको भोगनेसेही छुटकारा है । इसका अन्य कोई इलाज नहीं है, चित्तको क्रोधादियुक्त करनेसे भविष्यतमें दुःख होगा इसकारण समभावोंसे सहनाही उचित है ॥ २२ ॥ उद्दीपयन्तो रोषाग्निं बहु विक्रम्य विदिपः । मन्ये विलोपयिष्यन्ति कचिन्मत्तः शमश्रियम् ॥ २३ ॥ अर्थ-फिर विचारते हैं कि-पूर्वकृत कर्म मेरे वैरी हैं सो मैं ऐसा मानता हूं किवे सब शत्रु अपने उदयरूप पराक्रमसे क्रोधादिके उत्पन्न करनेवाले निमित्तोंको मिलाकर मेरे क्रोधरूप अग्नि उद्दीपन करते हुए मेरी उपशमभावरूपी लक्ष्मीको लगे । भावार्थजैसे शत्रु घरमें अग्मि लगाकर संपदा लूटता है, उसी प्रकार कर्मरूपी वैरी क्रोधाग्नि लगाकर मेरी शमभावरूपी संपदाको नष्ट करेंगे ऐसा विचार करते हैं ॥ २३ ॥ अप्यसो समुत्पन्ने महाक्लेशसत्करे । तुष्यत्यपि च विज्ञानी प्राकमविलयोवतः॥ २४ ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारते हैं कि-जो विज्ञानी पूर्वोपार्जित कर्माको नाश करनेमें उद्यत (तत्पर) हुआ है वह असह्य बड़े २ क्लेशोंके प्राप्त होनेपर सन्तोप भी करता है ! क्योंकि जो पूर्वजन्ममें कर्म उपार्जन किये थे उनका उदय अवश्य होना है, अब उदय आकर खिरगये सो अच्छा हुआ । इसप्रकार संतोष करलेते हैं ॥ २४ ॥ . यदि वाकण्टकैर्विद्धो नावलम्बे क्षमामहम् । ममाप्याक्रोशकादस्मात्को विशेषस्तदा भवेत् ॥ २५॥ अर्थ-दुर्वचन कहनेवाले पुरुषोंने मुझे वचनरूपी कांटोंसे बींधा (पीडित किया) अब यदि मैं क्षमा धारण नहीं करूंगा तो मेरे और दुर्वचन कहनेवाले में क्या विशेषता होगी ? मैं यदि इसे दुर्वचन कहूंगा तो मैं भी इसके समान हो जाऊंगा, इसकारण क्षमा करनाही योग्य है ॥ २५ ॥ विचित्रैर्वधवन्धादिप्रयोगैर्न चिकित्स्यति ।। __ यद्यसौ मां तदा क स्यात्संचितासातनिष्क्रियः ॥ २६ ॥ अर्थ जो कोई मेरा अनेक प्रकारके वधवन्धादि प्रयोगोंसे इलाज नहीं करै तो मेरे पूर्वजन्मोंके संचित किये असाता कर्मरूपी रोगका नाश कैसे हो । भावार्थ-जो. मुझे वधबन्धनादिकसे पीडित करता है वह मेरे पूर्वोपार्जित कर्मरूपी रोगोंको नष्ट करनेवाला वैद्य है, उसका तो उपकारही मानना योग्य है। किंतु उससे क्रोध करना कृतघ्नता है ॥२६॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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