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________________ ज्ञानार्णवः । १९९ अर्थ-जो मोक्षाभिलाषी हैं उनके इस लोकमें बड़े २ विघ्न होने संभव हैं, यह प्रसिद्ध हैं. वेही विघ्न यदि मेरे आवें तो इसमें आश्चर्य क्या हुआ ? इसकारण अब मैं समभावका आश्रय करता हूं, मेरा किसीपर भी राग द्वेष नहीं है ॥ १७ ॥ चेन्मामुद्दिश्य अश्यन्ति शीलशैलात्तपखिनः । अमी अतोऽन्त्र मजन्म परक्लेशाय केवलम् ॥ १८॥ अर्थ-फिर ऐसाभी विचार करते हैं कि यदि मैं क्रोध करूं तो मुझे देखकर अ. न्यान्य तपखी मुनि अपने शीलखभावसे च्युत हो जायँ (भ्रष्ट हो जायँ) तो फिर इस लोकमें मेरा जन्म केवल परके अपकारार्थ वा क्लेशके लिये ही हुआ, इसकारण मुझे क्रोध करना किसीप्रकार भी उचित नहीं है ॥ १८ ॥ प्रामया यत्कृतं कर्म तन्मयैवोपभुज्यते । मन्ये निमित्तमात्रोऽन्यः सुखदुःखोद्यतो जनः ॥ १९ ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारते हैं कि-मैने पूर्वजन्ममें जो कुछ बुरे भले कर्म किये हैं उनका फल मुझेही भोगना पड़ेगा; सो जो कोई मुझे सुख दुःख देने के लिये तत्पर हैं वे तो केवल मात्र बाह्य निमित्त हैं, ऐसा मैं मानताहूं तब इनसे क्रोध क्यों करना चाहिये।॥१९॥ मदीयमपि चेचेतः क्रोधाचैविप्रलुप्यते । अज्ञातज्ञाततत्त्वानां को विशेषस्तदा भवेत् ॥ २० ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचार करते हैं कि मैं मुनि हूं तत्त्वज्ञानी हूं, यदि क्रोधादिकसे मेरा भी चित्त बिगड़ जायगा तो फिर अज्ञानी तथा तत्त्वज्ञानीमें विशेष (भेद) ही क्या रहा? मैं भी अज्ञानीके समान हुआ । इसप्रकार विचार करके क्रोधादि रूपसे नहीं परिणमते ॥ २०॥ न्यायमार्गे प्रपन्नेऽस्मिन्कर्मपाके पुरःस्थिते।। विवेकी कस्तदात्मानं क्रोधादीनां वशं नयेत् ॥ २१ ॥ अर्थ-फिर ऐसा विचारते हैं कि-यह जो कर्मोका उदय है सो न्यायमार्ग में प्राप्त है। इसके निकट होनेपर (आगे आनेपर ) ऐसा कौन विवेकी है जो अपनेको क्रोधादिकके वशमें होने दे ? । भावार्थ-जो कोई अपना विगाड़ करता है सो अपने पूर्वजन्मके कर्मके उदयके अनुसार करता है । कर्म बांधते हैं, सो उनका उदय आना न्यायमार्ग है। इसकारण कर्मोदयके होनेपर क्रोध करना युक्त नहीं है, क्रोध करनेसे फिर भी नये कर्मोंकी उत्पत्ति होती है और आगेको सन्तति चलती है ॥ २१ ॥ सहख प्राक्तनासातफलं खस्थेन चेतसा। निष्प्रतीकारमालोक्य भविष्यदुःखशङ्कितः ॥ २२ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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