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________________ १.९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भूतहिंसाकरी चेति दुर्भाषां दशधा त्यजेत् । हितं मितमसंदिग्धं स्याद्भाषासमितिर्मुनेः ॥ २ ॥ अर्थ - कर्कश, परुष, कटु, निष्ठुर, परकोपी, छेद्यांकुरा, मध्यकृशा, अतिमानिनी, भयंकरी, और जीवोंकी हिंसा करानेवाली, ये दश दुर्भापा हैं. इनको छोड़े. तथा हितकारी, मर्यादासहित असंदिग्ध वचन बोले उसी मुनिके भाषासमिति होती है ॥ १२ ॥ " उद्गमोत्पादसंज्ञैस्तैर्धूमाङ्गारादिगैस्तथा । दोषैर्विनिर्मुक्तं विशङ्कादिवर्जितम् ॥ १० ॥ शुद्धं काले परैर्दत्तमनुद्दिष्टमयाचितम् । अदतोऽन्नं मुनेर्ज्ञेया एषणासमितिः परा ॥ ११ ॥ अर्थ — जो उद्गमदोष १६, उत्पादनदोष १६, एषणादोप १०, धुआं अंगार प्रमाण संयोजन ये ४ चार मिलाकर ४६ दोषरहित तथा मांसादिक १४ मलदोप और अन्त - राय शंकादिसे रहित, शुद्ध, कालमें परके द्वारा दिया हुआ, विना उद्देशा हुआ और याचनारहित आहार करै उस मुनिके उत्तम एषणा समिति कही गई है ॥ १० ॥ ११ ॥ इन दोषादिकों का खरूप ( आचारवृत्ति ) आदिक ग्रन्थोंसे जानना ॥ शय्यासनोपधानानि शास्त्रोपकरणानि च । पूर्व सम्यक्समालोच्य प्रतिलिख्य पुनः पुनः ॥ १२ ॥ गृहतोऽस्य प्रयत्नेन क्षिपतो वा धरातले । भवत्यविकला साधोरादानसमितिः स्फुटम् ॥ १३ ॥ अर्थ - जो मुनि शय्या, आसन, उपधान, शास्त्र और उपकरण आदिको पहिले भले प्रकार देखकर फिर उठावै अथवा रक्खै उसके तथा बड़े यत्नसे ग्रहण करते हुएके तथा पृथिवीपर धरते हुए साधुके अविकल (पूर्ण) आदान निक्षेपणसमिति स्पष्टतया फलती है ॥ १२ ॥ १३ ॥ -विजन्तुकघरापृष्ठे मूत्रश्लेष्ममलादिकम् । क्षिपतोऽतिप्रयत्नेन व्युत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥ १४ ॥ अर्थ — जीवरहित पृथिवीपर मल, मूत्र श्लेष्मादिकको बड़े यलसे ( प्रमादरहिततासे ) क्षेपण करनेवाले मुनिके उत्सर्गसमिति होती है ॥ १४ ॥ विहाय सर्वसंकल्पान् रागद्वेषावलम्बितान् । स्वाधीनं कुरुते चेतः समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ॥ १५ ॥ सिद्धान्तसूत्रविन्यासे शश्वत्प्रेरयतोऽथवा । भवत्यविकला नाम मनोगुसिर्मनीषिणः ॥ १६ ॥ .
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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