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________________ १ . ज्ञानार्णवः । वाकायचित्तजानेकसावधप्रतिषेधकम् । त्रियोगरोधनं वा स्वायत्तद्गुप्तित्रयं मतम् ॥ ४॥ अर्थ-मन वचन कायसे उत्पन्न अनेक पापसहित प्रवृत्तियोंका प्रतिषेध करनेवाला प्रवर्तन, अथवा तीनों योग (मनवचनकायकी क्रिया) का रोकना ये तीन गुप्तिये कही गई हैं ॥ ४ ॥ अब इन पांच समिति और तीन गुप्तियोंका भिन्न २ स्वरूप कहते हैं सिद्धक्षेत्राणि सिद्धानि जिनविश्वानि वन्दितुम् । गुर्वाचार्यतपोवृद्धान्सेवितुं ब्रजतोऽथवा ॥५॥ दिवा सूर्यकरैः स्पष्टं मार्ग लोकातिवाहितम् । दयाद्रस्याङ्गिरक्षार्थ शनैः संश्रयतो मुनेः ॥६॥ प्रागेवालोक्य यत्नेन युगमात्राहितेऽक्षिणः । प्रमादरहितस्यास्य समितीर्या प्रकीर्तिता ॥७॥ अर्थ-जो मुनि प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्रोंको तथा जिनप्रतिमाओंको वंदनेके लिये तथा गुरु, आचार्य वा जो तपसे बड़े हों उनकी सेवा करनेके लिये गमन करता हो उसके ॥५॥ तथा दिनमें सूर्यकी किरणोंसे स्पष्ट दीखनेवाले, बहुत लोग जिसमें गमन करते हों ऐसे मार्गमें दयासे आर्द्रचित्त होकर जीवोंकी रक्षा करता हुआ धीरे २ गमन करे उस मुनिके ॥६॥ तथा चलनेसे पहिले ही जिसने युग (जूड़े) परिमाण (चार हाथ ) मार्गको भले प्रकार देखलिया हो और प्रमादरहित हो ऐसे मुनिके इर्या समिति कही गई है ॥ ७ ॥ धूर्तकामुकक्रव्यादचौरचार्वाकसेविता। शङ्कासङ्केतपापाढ्या त्याज्या भाषा मनीषिभिः॥८॥ . दशदोषविनिर्मुक्तां सूत्रोक्तां साधुसम्मताम् । गदतोऽस्य मुनेर्भाषां स्थाद्वाषासमितिः परा ॥९॥ अर्थ-धूर्त (मायावी), कामी, मांसभक्षी, चौर, नास्तिकमती चार्वाकादिसे व्यवहारमें लाई हुई भाषा तथा संदेह उपजानेवाली, व पापसंयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानोंको त्यागनी चाहिये ॥ ८॥ तथा वचनोंके दशदोपरहित सूत्रानुसार साधुपुरुषोंके मान्य हो ऐसी भाषाको कहनेवाले मुनिके उत्कृष्ट भापासमिति होती है ॥ ९॥ रकं च ग्रन्थान्तरे। "कर्कशा परुषा कवी निष्ठुरा परकोपिनी। छेद्याङ्कुरा मध्यकृशाऽतिमानिनी भयंकरी ॥१॥ १ "मानिन्यतिभयंकरी" इति पाठः समीचीन इति मामकीनमतम् ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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