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________________ ज्ञानार्णवः । अथ त्रयोदशः सर्गः। अब मैथुन ( कामसेवन ) का वर्णन करते हैं स्मरज्वलनसंभ्रान्तो यः प्रतीकारमिच्छति । मैथुनेन स दुर्बुद्धिराज्येनाग्निं निषेधति ॥१॥ • अर्थ-जो पुरुष कामरूपी अमिसे पीड़ित होकर मैथुनसे उस पीडाको शान्त करनेकी. इच्छा करता है, वह दुर्बुद्धि धृतसे अमिकों वुझाना चाहता है ॥ १॥ वरमाज्यच्छटासिक्तः परिरब्धो हुताशनः । न पुनढुंगतेारं योषितां जघनस्थलम् ॥२॥ अर्थ-घृतकी छटाओंसे सिंचन किये हुए अग्निका आलिंगन करना श्रेष्ठ है, परन्तु स्त्रीके नघनस्थलका आलिंगन करना कदापि श्रेष्ठ नहीं; क्योंकि वह दुर्गतिका द्वार है। अर्थात् अग्निसे जला हुआ तो इस जन्ममें ही किंचित् कष्ट पाता है, किन्तु स्त्रीका आलिंगन करनेसे दुर्गतिमें नाना प्रकारके कष्ट सहने पड़ते हैं ॥२॥ सरशीतज्वरातङ्कशङ्किताः शीर्णवुडयः। विशन्ति वनितापङ्के तत्प्रतीकारवाञ्छया ॥३॥ अर्थ-कामरूपी शीतज्वरके भयसे नष्ट बुद्धि पुरुष उसके प्रतीकारकी वांछाकरके स्त्रीरूपी कर्दममें (कीचड़में ) प्रवेश करते हैं; परन्तु यह समीचीन उपाय नहीं है ।। ३ ॥ वासनाजनितं मन्ये सौख्यं स्त्रीसङ्गसंभवम् । । सेव्यमानं यदन्ते स्यारस्यायैव केवलम् ॥४॥ अर्थ-स्त्रीके संगसे उत्पन्न हुए सुखका सेवन करना अन्तमें केवल विरसताका ही कारण है। इस कारण आचार्य महाराज कहते हैं कि इस प्राणीकी पूर्व वासना ऐसीही है। उसीसे ऐसा होता है, किंतु परमार्थसे विचार किया जाय तो यह सुख दुःखही है ॥ ४ ॥ प्रपश्यति यथोन्मत्तः शश्वल्लोष्टेऽपि काञ्चनम् । ...मैथुनेऽपि तथा सौख्यं प्राणी रागान्धमानसः ॥५॥ : अर्थ-जिस प्रकार कोई पुरुष धतूरा खानेसे उन्मत्त होकर मिट्टीके ढेलेमें सोना समझता है, उसी प्रकार रागसे अन्ध होगया है चित्त जिसका ऐसा यह प्राणी मैथुनमेंमी ( दुःखमेंमी) सुखानुभव करता है. किंतु वास्तवमें इसमें सुख नहीं है ॥ ५ ॥ ___ अपथ्यानि यथा रोगी पथ्यबुद्ध्या निषेवते। . . सुखवुद्ध्या तथाङ्गानि स्त्रीणां कामी गतत्रपः ॥६॥ ..
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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