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________________ ७२ ज्ञानार्णवः। अब इन भावनाओंके नाम कहते हैं, कान्दी कैल्बिषी चैव भावना चाभियोगिकी। . दानवी चापि सम्मोही त्याज्या पश्चतयी च सा ॥४१॥ अर्थ-कान्दपी (कामचेष्टा), कैल्बिपी (क्लेशकारिणी), आभियोगिकी (युद्ध- । भावना), आसुरी (सर्वभक्षणी) और संमोहिनी ( कुटुंबमोहनी); इस प्रकार ये पांच , भावनायें पापरूप हैं सो पांचोंही त्यागने योग्य हैं ।। ४१ ॥ मार्जाररसितप्राय येषां वृत्तं त्रपाकरम् । तेषां स्वप्मेऽपि सद्ध्यानसिद्धिनवोपजायते ॥४२॥ अर्थ-जिन मुनिका चारित्र बिलावके कहे हुए उपाख्यानके (कहानीके) समान लज्जाजनक है, उनके समीचीन ध्यानकी सिद्धि खममेंभी नहीं हो सकती। बिलावका उपाख्यान लोकप्रसिद्ध है कि एक बिलावमूषकोंसे कहा करताथा कि, मैने तीर्थमें जाकर मूषक मारने वा खानेका त्यागकर दिया है, तुम हमारे पास आते हुए कदापि शंका न करो। जब मूषक निःशंक होकर बिलाबके पास आने लगे तब बिलावने क्रम २ से सब मूसोंको खा डाला। इसी प्रकार जो पुरुष पहिले तो मुनिदीक्षा लेकर प्रतिज्ञायें ग्रहण कर लें और फिर भ्रष्ट हो जावें उनके ध्यानकी सिद्धिका निषेध है ॥ ४२ ॥ अनिरुद्धाक्षसन्ताना अजितोग्रपरीपहाः। अत्यक्तचित्तचापल्या प्रस्खलन्त्यात्मनिश्चये ॥ ४३ ॥ अर्थ-जिन्होंने इन्द्रियोंके विषयभोगनेकी प्रवृत्तिको नहीं रोका, उग्र परीषहैं . नहीं जीती, और मनकी चपलता नहीं छोड़ी वे मुनि आत्माके निश्चयसे च्युत हो । जाते हैं। भावार्थ-जिनके इन्द्रिय वशमें नहीं हैं और परीषह आनेपर जो चिग जाते हैं वा जिनका मन चंचल है, उनको आत्माका निश्चय वा ध्यानकी स्थिरता नहीं रहती ॥ १३ ॥ अनासादितनिर्वेदा अविद्याव्याधवश्चिताः । असंवर्द्धितसंवेगा न विदन्ति परं पदम् ॥४४॥ अर्थ-जो विरागताको प्राप्त नहीं हुए हैं तथा मिथ्यात्वरूपी व्याधसे (शिकारीसे) वंचित किए गये हैं और जिनका मोक्ष और मोक्षमार्गमें अनुराग नहीं है, वे परमपद अर्थात् आत्माके खरूपकी प्राप्तिरूप मोक्षको नहीं जानते ॥ १४ ॥ न चेतः करुणाकान्तं न च विज्ञानवासितम्। विरतं च न भोगेभ्यो यस्य ध्यातुं न स क्षमः ॥४५॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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