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सद्यायमाला. . हांग ॥ मन दमादि विषय मिथ्यात्व निःशख्य जो, हास्य निदान अकिं चन बंधन शोचना रे लो॥ हां ॥. अव्य क्षेत्र समयादिक नाव विचार जो, नहिं प्रतिबंध अबंध किहांये मानसा रे लो॥३॥हा॥ इह लोका दिक सुख तणी नहिं आश जो, परलोकादिक ऋछि तणी वांबा नहीं रे लो ॥ हांग॥ कल्प ते मुनिनो. चंदनवासी समान जो, लाधे अशन अलाधे समजावे गिणे रे लो ॥ ॥ हांग ॥ आश्रव मनथी पूर' गयो अपसब जो, प्रशस्त ध्यान चढवे मन संवर स्थिर करे रे लो॥ हां॥ मेरु महीधर अचल महामुनि ध्यान जो, कायानी शुश्रूषा सहु ते पर हरी रे लो ॥५॥ हांग ॥ देव मनुष तिर्यंचना परिसह जेह जो, अनुलोम अने पडिलोम उपेने सम रहे रे लो ॥ हांग ॥ कांस्यपात्र उव्य उव्य जाव निर्लेप जो, शंख निरंजन जेम रागादिक नहिं लगे रे लो॥६॥ हांग ॥ गगनपरें आलंबन रहित मुनीश जो, वायुपरें प्रतिबंध नहिं कोई देशमां रे लो॥ हांग॥ सायर सलिल समान हृदय अकलुष जो, कम लपत्र निर्लेप सजल ते नवि धरे रे लो ॥ ७ ॥ हांग कूर्मपरें गुप्तेंजिय रहे निशि दीस जो, नारंग जिम अप्रमत्त कुंजरसम शूर रे लो ॥ हां ॥ वृषन परें व्रतनार वहे बलवंत जो, सिंहपरें महा धीर वीर परिसह सहे रे लो॥७॥ हां ॥ मेरु जेम अकंप उदधि गंजीर जो, चंडलेश्या तेजोलेश्या सूर्य परें तपे रे लो ॥ हांग ॥ वसुंधरा अन्य फरस सहे वड धीर जो, हुताशन जेम दीप्त तपें करी दीपतो रे लोल ॥ए। हां ॥ अनुत्तर दर्शन झान चारित्र जेह जो, चढियो रे परिणा में दपक श्रेणिये रे लो ॥ हां ॥ घाती कर्मनां तोड्यां ने आवरण जो, उपन्यो रे ते केवलज्ञान दिवाकरू रे लो॥ १० ॥ हां ॥ देव मलीने | रचना कमल तणी कीध जो, मृगाइषि कमलासन बेशी नपदिसे रे लो ॥ हांग ॥ धर्मदेशना नविककमल मनोहार जो, तारे रे जव पुष्करिणीथी बुडता रे लो ॥ ११ ॥ हां ॥ देखे केवल दर्शन लोक स्वरूप जो, तेम प्ररूपे नविक मैत्रिनावें करी रे लो ॥ हां ॥ वहु वरष लगें महियल कीध पावन्न जो, अंतसमे गुणी संलेषणा विधि शुं करी रे लो॥१२॥ हां ॥ एक,मासनु अणसण कीधुं महंत जो, पूण आयु करीने शिवसुंदरी वस्यो रे लो ॥ हांग ॥ जन्म मरणनां
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