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(७६) .. सद्यायमाला.. विराधना, जयणा करि सवि वाणिविण जयणारे जीव विराधना, नांखे | तिहुअण नाण ॥खागाए। जयणापूर्वक बोलतां बेसतां, करतां थाहार
विहार ॥.पापकर्म बंध कदिये नवि हुवे, कहे जिन जगदाधार ।। स्वा॥ -॥राजीव अजीव पहिला उलखी, जिम जयणा तस होय॥ ज्ञानविना नवि जीवदया पले, टले नवि आरन कोय ॥ स्वा० ॥११॥ जाणपणाथी संवर संपजे, संवरें कर्म खपाय ॥ कर्मदयथी रे केवल ऊपजे, केवली मु क्ति लहेय ॥ स्वा॥१॥ दशवैकालिक चउथाध्ययनमां, अर्थ प्रकाश्योरे एह ॥ श्री गुरु लान विजयपद सेवतां, वृधिविजय लहे तेह॥स्वाग॥१३॥
॥अथ पंचमाध्ययन सद्याय प्रारंजः॥ | ॥वीर वखाणी राणी चेलणा ॥ ए देशी ॥ सुकता आहारनी खप करो जी, साधुजी समय संजाल ।। संयम शुभ करवानणी जी, एषणा दूषण टाल ॥ सुऊ० ॥१॥ प्रथम सफायें पोरिसी करी जी, अणुसरी वली उपयोग ॥ पात्र पडिलेहण आचरो जी, आदरी गुरु अणुयोग ॥ सु॥२॥ गर धूअर वरसातना जी, जीव विराहण टाल ॥ पग पग
या शोधतां जी, हरिकायादिक नाल ॥ सु०॥३॥ गेह गणिका तणां परिहरो जी, जिहां गयां चल चित्त होय ॥ हिंसक कुल पण तेम तजो जी, पाप तिहां प्रत्यक्ष जोय ॥ सु॥४॥ निज हाये बार उघाडीने जी, पेसीये नवि घरमांहि ॥ बाल पशु निलुक प्रमुखने संघट्टे, जयें नहिं घरमाहि ॥सु ॥५॥ जल फल जलण कण खूणशुं जी, नेट तां जे दिये दान ॥ ते कल्पे नहिं साधुनें जी, वरजवं अन्न ने पान ॥ सुण॥६॥ स्तन अंतराय बालक प्रत्ये जी, करीने रडतो ग्वेय ॥ दान दिये तो उलट नरी जी, तोहि पण साधु वरजेय ॥ सु॥॥॥ गर्नवती. वली जो दिये जी, तेह पण अकल्प होय ॥ माल निशरणी प्रमुखें चढी जी, आणि दीये कल्पे न सोय ॥ सु॥॥ मूल्य आएयु पण मत ली यो जी, मत लीयों करी अंतराय ॥ विहरतां न खंनादिकें जी, न अ. मो थिर उवो पाय ॥ सु०॥ ए॥ एणीपरें दोष सर्वे बांगतां जी, पामीयें आहार जो शुरू। तो लहियें देह धारण जणी जी, अणलहे तोतपवृद्धि ॥सु॥१०॥ वयण लजा तृषा नदना जी; परिसहथी स्थिरचित्त ॥ गुरुपासें शरियावही पडिकमी जी, निमंत्री:साधुने नित्य ॥ सु॥११॥
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