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दशवैका लिकनी सद्याय.
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शुद्ध एकांत ठामें जई जी, पडिकमी ईरियावही सार ॥ जोयण दोष से वि बांगिने जी, स्थिर थर करवो आहार ॥ सु० ॥ १२ ॥ दशवैका लिके पांच जी, अध्ययनें कह्यो ए खचार ॥ ते गुरु लान विजय सेवतां जी, वृद्धिविजय जयकार ॥ सुवं ॥ १३ ॥ इति ॥
॥ श्रथ षष्ठाध्ययन सचाय प्रारंभः ॥
॥ म म करो माया काया कारिमी ॥ ए देशी ॥ गणधर सुधर्म एम उपदिसे, सांजलो मुनिवरखुंद रे ॥ स्थानक अढार ए उलखो, जेद बे पापना कंद रे ॥ ग ॥ १ ॥ प्रथम हिंसा तिहां बांडियें, फू नविनां खिये वयण रे ॥ तृण पण दत्त नवि लीजीयें, तजीयें मेहुण सयण रे ॥ ग ॥ २ ॥ परिग्रह- मूर्छा परिहरो, नवि करो जोयण राति रे ॥ ढंकों बकाय विराधना, जेद समजी सहु जांति रे ॥ ग० ॥ ३ ॥ अकल्प आ हार नवि लीजीयें, उपजे दोष जे मांहि रे ॥ धातुनां पात्र मत वावरो, गृहीतं मुनिवर प्राही रे ॥ गण् ॥ ४ ॥ गादीये मांचीये नः बेसीयें, वारियें शय्या पलंग रे || रात रहियें नवि ते स्थलें, जिहां होवे नारिप्रसंग रे || ग० ॥ ५ ॥ स्नान मजन नवि कीजीयें, जिसे हुवे मनतो कोन रे । तेह शणगार वलि परिहरो, दंत नख केश ती शोज रे ॥ ग० ॥ ६ ॥ बडे अध्ययनें एम प्रकाशोयो, दशवैकालिक एह रे || लाजवि जय गुरु सेवतां, वृद्धिविजय लह्यो तेह रे || ग० ॥ ७ ॥ इति
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॥ अथ सप्तमाध्ययन सचाय प्रारंभः ॥
॥ कनूर हुवे अति उजलो रे । ए देशी ॥ साधुं वयण जे नांखियें रे, साची भाषा तेह | सच्चा मोसा ते कहियें रे, साधुं मृषा होय जेह रे ॥१॥ साधुजी करजो भाषा शुद्ध || करी निर्मल निजबुद्धि रे ॥ सा० ॥ कर० ॥ एक ॥ केवल जूट जिहां होवे रे, तेह असचा जाए ॥ साधुं नहिं जंतुं नहीं रे, असत्या मृषा ठाण रे || साणक० ॥ २ ॥ ए चारेमांहे कहीं रे, पहेली भाषा होय॥ संयमधारी बोलवी रे, वचन विचारी जोय रे ॥ सा० ॥ कृ० ॥ ३ ॥ कठिन वयण नवि जांखियें रे, तुकारो रेकार || कोइना मर्म न बोलीयें रे, साचा पण निर्धार रे ॥ सा० ॥ कप ॥ ४ ॥ चोरने चोर ने जांखिये रे, काणाने न कहे का। कहीं यें न अंधों अंधने रे, साचु कठिन ए जाए रे ॥ सा० ॥ ० ॥ ५ ॥ जेथी अनरथ उपजे रे, परने पीडा थाय ॥