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जयसोमजिकृत शिखामणनी सद्याय. (१६१) शियक्ष परिमाण ॥ वी॥२॥ शीत गर सबलो पडे जी, चेलणा प्रीतम साथ ॥ चारित्रियो चित्तमां वस्यो जी, सोड बाहिर रह्यो हाथ ॥ वी० ॥ ३॥ जवकी जागी कहे चेलणाजी, केम करतो हशे तेह ।। कामनीने मन कोण वस्यो जी,श्रेणिक पड्यो रे संदेह । वी॥४॥अंतेजर परजालजो जी, श्रेणिक दीयो रे आदेश ॥ जगवंते संशय नांजियो जी, चमकियो चित्त नरेश ।। वी० ॥५॥ वीर वांदी वलतां थकां जी, पेसतां नगरमकार ।। धूवांध तिहां देखी कहे जी, जा जा जुंमा अजय कुमार ॥वी॥६॥ ताततुं वचन ते पालवाजी, व्रत लीयो अजयकुमार ॥ समयसुंदर कहे घेलणा जी, पामशे नवतणो पार ॥ वी० ॥७॥ इति समाप्तः॥
॥अथ श्रीजयसोमजीकृत शिखामणनी सचाय ॥ . ॥ कामनी कहे निजकंतने, सुणो प्रीतम प्यारा ॥नाह कुनाह न होश य, मेरे नयनयी न्यारा॥अवहीं अचानक क्या हुआ, पीयु चालणहारा॥ रहो रहो रंगरसें करी, मन मोहनगारा ॥१॥ सुण सांझं हो अरदास हमा री॥मेंतो तेरी हो हुँ खिजमतगारी॥तुं तो चाले हो गोडी निरधारी,में तो तोशू होकीनी एक यारी ॥सु॥शा वहुत कालकी प्रीतडी,युं तटकी नोडो॥कांतनारीना सूत ज्यु, त्रूटे तिहां जोडो।।मैरी शीख नली सुणी, क्युं मुह मचकोडो॥ कंचुकी श्याम जुजंग ज्यु, मुजकुं क्युं क्यों ॥ सु॥ ॥३॥ हमसी तेरे बहुत है, मेरे तुहिज लाला ।। होंस हैयाकी पूर ल्यो, सुणि आतम वादहा । फिर मोसु जो नही, मत हो मतवाला । संवल लीये विणु नहीं चले, होये कोण हवाला ॥ सुणा ४॥आलम एते दिन किया, दमरी न कमा॥ व्याजें लश्धन वावस्यो, रह्या पूंजी खा॥ पद्धे एक पता नहीं, नहीं संवल सखा॥आगल तेरे कारणें, कही सेज वि बाइ॥सुणा॥ ऐसे मुखसे सुंदरी, मुलही तें पाय॥ तें ए कदी विलसी नही, रह्यो आस विला ॥ पोढी रह्यो रे प्रीतमा, मोकुं रयण जगा ॥ चतुर सहेलीके वीचमें, मोकुं लाज लगा॥सु॥६॥ जना नरणी जोग णी, जोई नही वेला ॥ तेरे उशमन बहुत है, तो चले एकीला॥ वाटे विषम जय धाडिनो, नही सूणि समेला ।। कुण मुहूरत विबुडे के, कब हो शे नेला ॥ सु॥॥ पीयु कहे सुण सुंदरी, हूंतो धणीई बुलाया ॥रहणा श्क रात्रि होरे नही, करुं कोडी उपाया । जेणे जेर जगत कीया, कुण
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