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________________ लिए कलक-ओढने का कपडा रखे । नदी की गहराई के ज्ञान करने के लिए दंड रखे व छोटे जीव तथा धूल इत्यादि को दूर करने के लिए रनोहरण रखे। मुनि जतना से पौद्गलिक वस्तुओं को उठावे व रक्खे । भाव से आत्म परिणितियों की सावधानी से गवेषणा करता रहे । वाधक भावों को द्वेष-रहित हो, छोड़ें तथा साधक कारणों को रागरहित हो, ग्रहण करें। पांचवीं समिति "परिष्ठापविका" है । यह मलमूत्र तथा अधिक व अभक्ष्य आया हुआ आहार, टूटे फूटे संयम के उपकरण आदि को शुद्ध तथा एकान्त स्थानों में विसर्जन कर दिये जाने रूप है । श्रीमद् देवचन्द्रजी कहते हैं कि शरीर है । वहां मल मी उत्पन्न होता ही है । उससे किसी प्राणी का नुकसान न हो उस स्थान में विसर्जन कर देना चाहिए । संयम के वाधक, आत्म विराधक उपघि आहार व शिष्यादि को मुनि छोड़ दें। श्रीमद् कहते हैं: " संयम बाधक आत्मविराधनारे, आणाघातक जानि । उपधि अशन शिष्यादि परठेव रे आयति लामपिछानि ॥" .. तीनों गुप्तियों में मन, वचन, काया की चपलता को छोड़ आत्मा में मन स्थिर करने का विधान है। मन से धर्म, शुद्ध ध्यान ध्यावे । आर्त ओर रौद्र ध्यान छोड़ दे। वचन में मौन रहे तथा स्वाध्याय करे। काया से स्थिर नहीं यदि चपलता है तो वह बंधन है। चंचल भाव आश्रव का मूल है। अन्त की कलशरूप ढालमें मुनियों के गुणों की स्तवना की गई है । । प्रमंजना-सती की सज्झायमें भी आध्यात्मिक-तत्त्वका निरूपण वड़ा ही सुन्दर हुआ है । राजकुमारी "प्रमंजना" हजार सखियों के साथ स्वयंवर मंडप जा रही है। रास्ते में साध्वी मंडल मिलता है.। वे राजकुमारी को संसारके स्वरूप का वर्णन कर उसे धर्म में उद्यम करनेकी प्रेरणा देती हैं । प्रभंजना की उन साध्वियों के कथन की वास्तविकता प्रतीत हो जाती है, पर उसका सखीसमुदाय उसे स्वयंवर मंडप में जाकर पूर्व-निश्चित वरको वरने की इच्छा पूरी करने को कह कर फिर धर्म-साधना में लग जाने को कहता है तब प्रभंजनाने जो कहा उसे कवि स्वयं कहता है कि "धर्म प्रथम करवो सदा, देवचन्द्रनी वाणी रे लो।" साध्वी-समुदाय भी उसके विचारों की पुष्टि करता हुआ राजकुमारीसे कहता है कि प्रथम भोगों में फंसकर फिर धर्म-आराधना करना यह उसी प्रकार है जैसा कि पहिले जानबूझकर कीवड में गन्दा होना और फिर स्नान करना । उत्तम पुरुषों का आचार यही है कि पहिले गन्दा ही नहीं होना: . . " खरडीने वलि घोय रे कन्या, पह न शिष्टाचार । . रत्न-त्रयी साधन करोरे कन्या, मोहाधीनता पारें । सुग्यानी कन्या।" साच्चियां राजकुमारी को और उपदेश करती हैं कि माता-पितादि कुटुम्ब तथा सांसारिक वस्तुएँ सब क्षणभंगुर हैं । शत्रु मित्र हो जाते हैं और मित्र शत्रु । यह मेरा व पराया इत्यादि सब आरोपित-कल्पित-मानी हुई बातें हैं । पोद्गलिक पदार्थों की मोहकता में पड़ना-भूल है। पुद्गल
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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