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________________ भावना तो प्रमाद निद्रा से हटाने के लिये मुघोषघंटानाद सदृष्य है। गजमुकुमाल, ढंढण एवम् प्रमंजना आदि सब्झायों में जो अध्यात्म-रस उडेला गया है वैसे अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। "स्नात्रपूजा " तो आपकी भक्तिरस की श्रोतस्विनी ही है। स्तवन सज्झाय आदि तो अनेक जैन कवियों की हजारों की संख्या में उपलब्ध हैं पर आपकी रचनाओं में अध्यात्म-रसधारा जिस रूप में छलक पडती है, वह अपनी अमिट छाप हृदय पर सर्वदा के लिए अंकित कर जाती है । अध्यात्म-तत्व मानों आपके हृदय में मूर्तिमान होकर विराजमान हो गया हो। स्तवनों एवम् स्नात्र पूजा आदि में भक्ति-रस की जो मन्दाकिनी प्रवाहित की है, उसकी शैली अन्य कवियों से भिन्न है। आपके भक्ति पदों में भी अध्यात्म जैन तत्व-ज्ञान का गहरा प्रभाव नजर आता है । फलतः आपकी प्रमुभक्ति में, जैसे दूसरे जैन कवि भावावेश में जनेव को भूल से गये हैं, वैसी बात आपकी रचनाओं में कहीं दृष्टि-गोचर नहीं होती। जैनमान्यतानुसार प्रभु परमात्मा है सही पर एक व्यक्ति विशेष नहीं, अनेक हैं। हां 1 गुणों की दृष्टि से उनमें एकता सहधार्मिकता अवश्य है । जैन व जैनतर दृष्टिकोण में ईश्वर सम्बन्धी यह अन्तर है जैनेतर ईश्वरको "एक महान् शक्ति" सृष्टि कर्ता और कर्म-फलादिक दाता मानते हैं तब जैन कृतकृत्य वा सिद्ध शुद्ध मानते हैं। ईश्वरत्व प्राप्तकर लेने पर फिर कुछ भी करना उनके लिये अवशेष नहीं रह जाता अतः वे किसीको तारते हैं और न संसार में रुलाते हैं। जीव अपने भले के लिए सर्वथा स्वतंत्र है। वह अपने कार्यों द्वारा फर्म-बंधकर भवभ्रमण करता, बाह्य सुखदुखका अनुभव करता है और अपने ही प्रयत्न द्वारा कर्मो से भूक्त हो, शुद्ध-स्वरूप परमात्मा पद प्राप्त कर लेता है। यहां प्रश्न हो सकता है कि तब भक्तिको स्थान कहां रहा। इसका उत्तर यह है कि कर्म-निप्पत्ति के दो कारण हैं उपादान और निमित्त । मूल कारण तो उपादान हो है पर बहुत हदतक निमित्त को भी महत्वपूर्ण स्थान है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्ति पाने में उपादान तो स्वयं अपनी आत्मा या उसका पुरुषार्थ-प्रयत्न ही है पर प्रभु मार्ग प्रदर्शक, प्रेरक के रूपमें निमित्त कारण है । अतः उपादानको शुद्धता के लिये निमित्तका अवलम्बन भी आवश्यक माना गया है । और वहीं भक्ति को अवकाश मिलता है । हमें प्रभु से कुछ टेने व मांगने नहीं जाना है बल्कि उनको देखकर अपने शुद्ध व वास्तविक स्वरूप को स्मरण करना है और उनके जीवन और उपदेशो से निज-स्वरूप प्राप्ति के मर्म को जानकर प्रवृत्त होने की प्रेरणा लेनी है । फर्ता-मोका हम स्वयं ही हैं। अम्हिंत, नीवन-मुक्त, इसमें सहाय मार्गप्रदर्शन व यन्तुतत्त्वका वास्तविकरूप मान के उपाय बतलाने द्वारा करते हैं। और सिद् तो यह भी नहीं सकते उनसे तो हमें केवल प्रेरणा लेनी है। उनके दर्शनद्वारा अपने शुद-स्वरूप का दर्शन करना है। उनके गुण-कीर्तनद्वारा अपनी आत्माके स्वाभाविक व वास्तविक गुणो को ही संभालना है। उनकी पूजा व भक्तिद्वारा उनके गुणों का अनुसरण व आदर-बुदि उत्पन्न करना है । उनके नरिन में साधन मार्ग, उसके लिए आवश्यक तैयारी व अपने जीवन को तदनुरूप बनाने की प्रेरणा लेनी है। अपनी अशुदता व आग्मिक न्य हटाना है । और दृढतर तितिक्षा, सहनशीलता सत्माय चीतरागता आदि बढ़ाते जाना है।
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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