________________
२३१ प्रसिद्ध पूर्वाचायकि प्रथाकी व्याख्यानप है। उपाध्यायनी थे पके जैन और श्वेताम्बर। फिर भी . विद्याविषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वह अपने सम्प्रदाय मात्रमें समा न सकी अनपत्र उन्होंन 'पानञ्जल योगसूत्र' ऊपर भी लिया और अपनी नीव समालोचना की छत्य दिगम्बर-परम्पर्गक सूक्ष्मज ताकिंकावर विद्यानन्दक ऋटिनतर 'अष्टमहनी' नामक ग्रन्थक अपर, ऋटिलतम व्याप्त्या भी लिम्बी।
गुजगनी और हिंदी मारवाढीमें मिली हुई उनकी ऋनियाँका रोड़ा बहुन वाचन परत व प्रचार पहिने ही में रहा है, परन्तु उनकी संस्कृत-प्राकृत नियोंकि अध्ययन-अध्यापनका नामोनिशान भी उनके जीवन कामे कर. ३० वर्ष पहले तक दम्वनमें नहीं आता। यही सबब है कि दाई भो वर्ष जिनन कम और ग्यास उपद्रवपि मुक इस मुछिन समय में भी उनकी सब ऋतिया सुरक्षित न रहीं। पठन-पाठन न होनमें उनकी नियंकि पार्टीका टिप्पणी निव नानका नो मम्मत्र रहा ही नहीं पर उनकी नकले मी ठीक-ठीक प्रमाण, दोन न पई। झुछ कनिया नो ऐसी मी मिल रही है कि जिनकी सिर्फ एक एक प्रति नही। सम्भव है ऐसी ही एक एक नकटवाली अंने नियाँ या तो छम हो गई हो, या किन्ही अचान स्थानी वितर-बितर हो गई ह।। बो कुछ हो पर अव भी उपाध्यायनीका जितना माहिग्य छन्य है, उतनं मात्रका टीक-ठीक पूरी तैयारी साथ अध्ययन हिया नाय नी नेन परम्पग चार्ग अनुयोग नथा आगमिक ताकि कोई विषय अनार न हंग।
उदयन और गगा ने मैथिल नामिपुङ्गकि द्वारा जो नत्र्य नकशास्त्रका बीनागपग व विकास प्रारम्भ हुआ और जिमका व्यापक-प्रमात्र व्याकरण, साहित्य, छन्द, विविध-दर्शन और धर्मशान पर पड़ा और खुब फेला उस विकासप बम्चिन सिर्फ दो सम्प्रदायका साहित्य रहा। जिनमें बौद्ध साहित्यको उम त्रुटिकी पूर्तिका नी सम्भव ही न रहा था क्योकि बारहवी नहीं शनानकि बाद माग्नवपमें बौद्ध, विहानको परम्परा नाममात्रको भान नही इसलिए वह युटि उतनी नही अग्नी नितनी नन माहित्यको बह शुटि। क्योकि क्षन-सम्प्रदायक सैकड़ा ही नहीं चक्कि हजाग मायनसम्पन्न त्यागी व कुछ गृहस्थ भारतवर्ष प्रायः समी भागोमें मौजूद रहे, जिनका मुख्य वनौवनन्यापीय शासचिन्नुनके सिवाय और कुछ कहा ही नहीं जा सकता। इस जैन साहित्यको कमीको दूर करने और अं हाथ पूरी तरह दूर भरनका उम्जवल व स्थायी अश अगर किसी न विद्वानको नौवह उपाध्याय यशोविजयनीको हाह!"........
[सिंधी इनप्रन्पमाला प्रयांक ८ पि., १९९४ में प्रकाशित उपा. धाग्यविजयनी देन द्वमा प्रस्तावना