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________________ वादमें किसी विद्वान् पर विजय पानेके बाद पं. यशोविजयजीको 'न्यायविशारद की पदवी मिली। उन्हें 'न्यायाचार्य पद भी मिला था ऐसी प्रसिद्धि रही। पर इसका निर्देश 'मुजशवेलीमास' में नहीं है। फाशीके बाद उन्होंने आगराम रहकर चार वर्ष तक न्यायशास्त्रका विशेष अभ्यास व चिन्तन किया । इसके बाद वे अमदाबाद पहुँचे जहाँ उन्हनि औरंगजेबके महोबतखा नामक गुजरातके स्वेके समक्ष अठारह अवधान किये । इस विद्वत्ता और कुशलतासे आकृष्ट होकर सभीने पं. योविनयजीको 'उपाध्याय' पदके योग्य समझा । श्रीविजयदेवरिक शिष्य श्रोविजयप्रमरिने उन्हे सं. १७१८ में वाचक 'उपाध्याय' पद समर्पण किया । वि. सं. १७४३ में हमोई गाँव, नो बढोदा स्टेटमें अमी मौजूद है उसमें उपाध्यायनीका स्वर्गवास हुआ, जहाँ उनकी पादुका वि. सं. १७४५ में प्रतिष्टित की हुई अभी विद्यमान है। उपाध्याय के शिष्यपरिवारका निर्देश 'मुजसवेली' में तो नहीं है पर उनके तत्वविजय, आदि शिष्य-अशिष्योका पता अन्य साधनसि चलता है जिसके वास्ते 'जन गूर्जर कविओ' मा. २ पृ. २७ देखिए। उपाध्यायीक बाह्य जीवनकी स्थूल घटनाका जो संक्षिप्त वर्णन ऊपर किया है, उसमें दो घटनाएँ खास मार्केकी है जिनके कारण उपाध्यायजीके आन्तरिक जीवनका स्रोत यहाँतक अन्तर्मुख होकर विकसित हुआ कि निसके बल पर वे भारतीय साहित्यमें और खासकर जैन परम्परा, अमर हो गए। उनमेंसे पहिली घटना अभ्यासके वास्ते काशी नानेकी और दूसरी न्याय आदि दर्शनोंका मौलिक अभ्यास कनेकी है.1 उपाध्यायनी कितने ही बुद्धिव प्रतिभासम्पन्न क्यों न होते उनके वास्त गुजरात आदिमें अध्ययनकी सामग्री कितनी ही क्यों न जुटाई जाती, पर इसमें कोई संदेह ही नहीं कि वे अगर काशीमें न नाते तो उनका शास्त्रीय व दार्शनिक ज्ञान, जैसा उनके प्रन्योमें पाया जाता है, संभव न होता । काशीमें आकर भी वे उस समय तक विकसित न्यायशास्त्र खास करके नवीन न्याय-शास्त्रका पूर वलसे अध्ययन न करते तो उन्होने जैन परम्पराको और तद्वारा भारतीय साहित्यको जैन विद्वानकी हैसियत नो अपूर्व भेंट दी है वह कमी संभव न होती। दसवीं शताब्दीसे नवीन न्यायक विकासके साथ ही समप्र वैदिक दर्शनोंमें ही नहीं बल्कि समप्र वैदिक साहित्यमें सूक्ष्म विलेपण और तर्ककी एक नई दिशा प्रारम्भ हुई और उत्तरोत्तर अधिक से अधिक विचारविकास होता चला नो अभी तक हो ही रहा है । इस नवीनन्यायकृत नव्य युगमें उपाध्यायनीक पहले भी अनेक श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वान् हुए नो बुद्धि-प्रतिमासम्पन्न होनेके अलावा जीवनमर शानयोगी भी रहे फिर भी हम देखते हैं कि उपाध्याय के पूर्ववती किसी जैन, विद्यान्न नैन मन्तव्योंका उतना सतर्क दार्शनिक विश्लपण व प्रतिपादन नहीं किया जितना उपाण्यायजीक काशीगमनमें और नत्र्यन्यायशानक गम्भीर अध्ययन में ही है । नवीन न्यायशानके अभ्याससे
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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