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________________ १०७.] - प्रवचनसारः -- २६५ सर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यश्च भवति । एवंभूतश्च सर्वाभिलाषजिज्ञासासंदेहासंभवेऽप्यपूर्वमनाकुलत्वलक्षणं परमसौख्यं ध्यायति । अनाकुलत्वसंगतैकाग्रसंचेतनमात्रेणावतिष्ठत इति यावत् । ईदृशमवस्थानं च सहजज्ञानानन्दस्वभावस्य सिद्धत्वस्य सिद्धिरेव ॥ १०६ ॥ . अथायमेव शुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षस्य मार्ग इत्यवधारयति एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुद्विदा समणा । जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिवाणमग्गस्स ॥१०७॥ एवं जिना जिनेन्द्राः सिद्धा मार्ग समुत्थिताः श्रमणाः । जाता नमोऽस्तु तेभ्यस्तस्मै च निर्वाणमार्गाय ॥ १०७॥ यतः सर्व एव सामान्यचरमशरीरास्तीर्थकराः अचरमशरीरा मुमुक्षवश्वामुनैव यथोदितेन सर्वात्मप्रदेशैर्वा स्पर्शनादिसर्वेन्द्रियाणां संबन्धित्वेन ये ज्ञानसौख्ये द्वे ताभ्यामाढ्यः परिपूर्ण इत्यर्थः । तद्यथा-अयं भगवानेकदेशोद्भवसांसारिकज्ञानसुखकारणभूतानि सर्वात्मप्रदेशोद्भवखाभाविकातीन्द्रियज्ञानसुखविनाशकानि च यानीन्द्रियाणि निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारवलेनातिक्रामति विनाशयति यदा तस्मिन्नेव क्षणे समस्तबाधारहितः सन्नतीन्द्रियमनन्तमात्मोस्थसुखं ध्यायल्यनुभवति परिणमति । ततो ज्ञायते केवलिनामन्यच्चिन्तानिरोधलक्षणं ध्यानं नास्ति किंत्विदमेव परमसुखानुभवनं वा ध्यानकार्यभूतां कर्मनिर्जरां दृष्ट्वा ध्यानशब्देनोपचर्यते । यत्पुनः सयोगिकेवलिनस्तृतीयशुक्लध्यानमयोगिकेवलिनश्चतुर्थशुक्लध्यान भवतीत्युक्तं तदुपचारेण ज्ञातव्यमिति सूत्राभिप्रायः ॥ १०६ ॥ एवं केवली किं ध्यायतीति प्रश्नमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । परमसुखं अनंतज्ञान इन दोनोंसे पूर्ण ऐसे केवली भगवान् [परं] उत्कृष्ट [सौख्यं] आत्मीकसुखका [ध्यायति ] चितवन अर्थात् एकाग्रतासे अनुभव करते हैं । भावार्थ-यह आत्मा जिस समय अनंतज्ञान अनंतसुखके आवरण करनेवाले एकदेशी ज्ञान सुखके हेतु इन्द्रियोंके नाशसे अतींद्रिय दशाको प्राप्त होता है, तव वाधाओं (रुकावहहों)से रहित हुआ अनंतज्ञान अनंतसुख सहित होता है, ऐसे केवली भगवानमें यद्यपि कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं रही, और कुछ जानने की भी अभिलापा नहीं रही, तथा कुछ संशय भी नहीं रहा, तो भी भगवान् एकाग्रतासे अपने अनंत अनाकुल परमसुखको अनुभवते हैं। इस कारण उपचारसे ध्यान करता है, ऐसा कहते हैं। ध्यान करनेका फल यह है, कि पूर्व में बँधे हुए कर्मोकी निर्जरा होती है, और आगामी बंधका परमसंवर होता है, इस कारण केवलीभगवानके अपने अनंतसुखका अनुभव करनेसे पूर्व कर्मोकी निर्जरा होती है, आगेका संवर है, इसलिये उपचारमात्र केवलीके ध्यान है । इस प्रकार स्वाभाविक ज्ञानानन्दस्वरूप सिद्धत्वकी सिद्धि भगवानके ही है ॥ १०६ ॥ आगे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति ही मोक्षमार्ग है, निश्चय करते हैं; प्र० ३४
SR No.010843
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorA N Upadhye
PublisherManilal Revashankar Zaveri Sheth
Publication Year1935
Total Pages595
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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