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परिजेदः १४ क कहे डे के जो निकट चैत्य होय तो चैत्यवांदे, नहीं तो पडिलेहणा करे तथा वाचनांतरे एक शक्रस्तवे करी ने, पण जघन्य चैत्यवंदना कही, तेथी प्रतिक्रमणमांडा यंत नमस्कार शक्रस्तवे करी सामान्य चैत्यवंदना संजवे पण विशेष चैत्यवंदना तो चैत्यमांज संनवे कारण के "जश्चेश्याणि,अजितन्वंदिया” ए वचनथी सर्व ग्रंथो मां प्राये चैत्यमांज चैत्यवंदना लखे ॥ माटे श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायजीए पण गर्नहेतुस्वाध्यायमां बार अधिकार सहित विस्तार देववंदना कही ले ते पण जिनगृहसंबंधि जांणवी, पण प्रतिक्रमण संबंधि न जांणवी; केमके उपर लखेलां बहु शास्त्रोमां विस्तारथी नि रंतर जिनगृहमां व्रण थुइ पूर्वक तथा पूजाप्रतिष्ठादि कारणे चतुर्थस्तुति सहित त्रण थुइ पूर्वक चैत्यवंदना करवी कही बे, अने प्रतिक्रमणना आद्यतमां जघन्योत् कृष्ट चैत्यवंदना करवी कही ले सर्व आचार्योनो एकज मत बे; तेथी सुझजन नवनीरु पुरुषोने तो शास्त्रनी सूचना मात्रथी बोध थइ जाय ने तो ज्यारे बहु ग्रंथोना लेख देखे त्यारे तो तेनने किंचित्मात्र पण कदाग्रह रहेतो नथी; ते वास्ते अमे बहु नम्रता पूर्वक आत्मारामजी प्रानंदविजयजीने कहीए बीए के श्रीमद्यशोविजयजी उपाध्यायजीना कथन प्रमाणे वर्त्तवानी इहा होय तो