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परिजेदः १४ देव वंदननु पए अवश्यपणुं माटे; तेनी ए विधिः जोगमुज्ञाए शक्रस्तव जणीने अरिहंतचेश्याएं पनी जिनमुशए कानस्सग करी मूलनायकनी वईमान थु कहे एटने जिनमुशएस्थापनाअरिहंत वांद्या वांदिने लो गस्स कही सवलोए कही यावत् अप्पाणंवोसिरामि हां सर्व चैत्योनी स्तुति कहे एटले नामनिदेपो वांद्योपड़ी झानस्तव कानस्सग्ग ज्ञाननी थुइ कहेवी पड़ी शक्रस्तवादि कहिये. कोइ लोकतो इहां सिहस्तव कहे जे ते महानिशीथादिक सूत्रोमां नथी ॥ पडी प्रणिधान एटले प्रतिक्रमण मंगलपाठनी पेठेत्रण श्लोकरूप प्रणिधान कहे एटले चैत्यवंदन विधि चैत्यमां करी पडिक्कमj करे एमां पण त्रण थुइ कहीले ॥३५॥
॥ए पाठमां जिनगृहमां देववंदन करी आवश्यक करवू का, माटे ए हेतुरूप कालकरालनास्करे तो प्रतिक्रमणना आदिनी चोथी थुइ सहित तमारी विस्तारे चैत्यवंदनारूप अंनोनिधिना कादवन शोषण करी नांख्यु तो प्रतिक्रमण गर्नहेत्वादिक स्वाध्यायादिकमां देवगुरु न मन करी सकल क्रिया करवी ते सफल थाय; माटे द्वादश अधिकारे देववंदन करी च्यार खमासमरो गुरु वांदि प्रतिक्रमण गवे इत्यादि सामान्य वचननो अवष्टंजलेश्प्रतिक्रमणना यंतमां विस्तारे देववंदन स्थापन