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________________ १एन परिच्छेदः ७ अने जो सर्वजिनगृहमा त्रण थुझ्नी चैत्यवंदना करतां घणो काल लागतो जांणे अने जिनगृह एटले देरासर घणां होय तो एकेक जिनगृहमा एकेक थुनी चैत्यवंदना करे ॥ ए कल्पनाष्यना मूल पाठमांत्रण थुश्नी चैत्यवंदना सर्वचैत्यमां करवी कही तेमज वृहत्कल्प नाष्यवृत्तिमां पण त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कहीले. ॥ते पातः॥अथ चैत्यवंदनविधिमाह निस्सकमेति॥ ॥ व्याख्या ॥ निश्राकृते गडप्रतिबके अनिश्राकृते च तद्विपरीते च चैत्ये सर्वत्र तिस्त्रः स्तुतयो दीयंते अथ प्रतिचैत्यं स्तुतित्रये दीयभाने वेलाया अतिक्रमो नवति जयांसि वा तत्र चैत्यानि ततो वेलांचैत्यानि वा ज्ञात्वा प्रतिचैत्यमेकैकापि स्तुतिर्दातव्योति. अस्यार्थः ॥ निश्राकृत कहीए एकगन्जप्रतिबद्ध चैत्यमांवली अनिश्रा कत जे पूर्वे कह्यो तेथी विपरीत एटने जे चैत्यमां बधाइ गबना प्रतिष्टादिक करे इत्यादि सर्वचैत्यमांत्रण स्तुति कहेवी जो प्रतिचैत्यमांस्तुति त्रण कहेवाथी सिसायादिक वेला उल्लंघन थाय अथवा बह चैत्य त्यां जे त्यारे वेला अवसर जाणीने चैत्यदीप एक एक पण स्तुति कहेवी । एमज कल्पचूर्णिमां पण त्रण थुश्नी चैत्यवंदना कहीजे.
SR No.010841
Book TitleChaturth Stuti Nirnay Shankoddhara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMarudhar Malav ane Gurjar Deshna Sadharmik Sangh
PublisherMarudhar Malav ane Gurjar Deshna Sadharmik Sangh
Publication Year1890
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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