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APPENDIX III.
संसार कहा हो ॥ ह्मा के चारी पुत्र सुमेर सिषारी उपर रहे है | जीना मै पढाया है ॥ चारी जुग की अईरदा है || अब मै तुमको पढाओ हुं ॥ सेा तुषीषु सुख मै कहता हुं ॥ पंडित हा जाये संसै का अचरज है ॥ यन संसार मे कोइक वरना साथ भेद जाने है | जो कोइ सरोदा साधै जाये जीनका देवता की सेज प्रापती हाये है।
Eud.—आकास तत्व मे वुझे तो माथे घात कहिये ॥ येति पंच प्रकार घात कहिये ॥ प्रधी तत्व मे वुझे तो प्रदेखी वेटा है | जल तत्व में वुझे तो प्रदेसी आवै है | तेजतत्व मे वुझे तो प्रदेसी को कष्टा है । आकाम तत्व में वुझे तो प्रदेसी मुवा ॥ वायु तत्व में वुझे तो प्रदेसी प्रदेस आगे गया | यति गव गये कि पारषा संपूरनं ॥ सुर साधे तो कल्यान होये || लाई नहि हाय ॥ लाय नहि लागै || सरप तहि इसे ॥ वैरि को समु नहि लागे ॥ व्याधि नहि हाये ॥ चार नहि लागे | श्री महादेव पारवति संवाद सरोद संपुरनं राम राम
Subject. — तन्त्रसार - स्वरोदय । श्री महादेव पार्वती का संवाद |
No. 80. Sastrartha. Substance-Foolscap. Leaves-45. Size— 8 x 6 inches. Lines per page - 17. Extent – 1,530 Slokas. Appearance-New. Character-Nagari. Place of Doposit—Pandit Rama Gopalaji, Vaidya, Jahangirābad, Bulandasahar.
Beginning. - मध धर्मयेार्मध्ये शास्त्रार्थ विचारो विदिता भवतु एकः दयानन्द सरस्वति स्वामी दिगम्बरो गंगातटे विहरति सत्य शास्त्रवित् स ऋग्वेदादि सत्य शास्त्रेभ्येा निश्चयं कृत्वैवं वदति पाषाणदि पूजन विधानं वेदेषु नास्त्येव शैव शाक्त गाणपत्य वैष्णवादि सम्प्रदाय विधानमपि रुद्राक्षादि त्रिपुण्ड्रादि धारणमपि नास्त्येव । तस्मादेतत्सर्व मिथ्यैव नाचरणीयं कदाचित् । (१३ पृष्ठ तक संस्कृत में ही शास्त्रार्थ का वर्णन है ) तदुपरान्त हिन्दी में-भाषार्थ । एक दयानंद सरस्वती नामक सन्यासी दिगंबर गंगा के तीर विचरते रहते हैं सत पुरुष और सत शास्त्रों के वेत्ता हैं उन्होंने संपूर्ण ऋग्वेदादि का विचार किया है सा ऐसा सत्य शास्त्रों को देख निश्चय करके कहते हैं कि पाषाणादि पूजन का शैव शाक्त गाणपत्य, और वैष्णव यादि संप्रदाइयों का विधान और रुद्राक्ष तुलसी माला त्रिपुंडादि धारण विधान भी वेद में नहीं इससे ये सब मिथ्या ही हैं । कदापि इनका आचरण न करना चाहिये क्योंकि वेद बिरुद्ध और वेद प्रसिद्ध ग्राचरण से बड़ा पाप होता है ऐसी मर्यादा वेद में लिखो है ।
End. श्रुति स्मृती मे कहा हुआ आचार यही परम धर्म है जिस श्रुति स्मृति उक्त धर्म से जिसका पिता और पितामह गए हैं उसी सत मार्ग से पुत्र का