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________________ प्रस्तुत प्रश्न हो गया है। मुझे ऐसा मालूम होता है कि सच्चा ज्ञान सदा 'प्राप्त होता है, वह 'बटोरा' अथवा 'बनाया' नहीं जाता। जो किसी क्षण हमपर प्रकाशित हो गया है, उसके निर्माता हम हैं,--ऐसे अहंकारके लिये स्थान नहीं है । ईश्वरकी प्रतीति ऐसी ही प्रतीति है । वह अपौरुषेय है । वह पुण्य-योगसे प्राप्त होती है । प्रश्न-किन्तु आकाशको भी मनुष्य निश्चय करके नहीं बनाता है, एक प्रकारसे वह भी प्राप्त ( = recalcal) ही होता है। फिर भी क्या मनुप्यकी चेतना-धारणाके विना वह कुछ वस्तुतः रह जाता है ? उत्तर- क्यों नहीं रह जाता ? व्यक्तिसे आकाश बड़ा है । हाँ, यह जरूर है कि जो आकाशमें है, वह व्यक्तिमें भी है । इसलिए यह कहनेमें विशेष अर्थ नहीं रहता कि कोई बड़ा या छोटा है। साथ ही यह कहनमें भी विशेष अर्थ नहीं है कि मानव चेतनाके अभावमें आकाश रह भी नहीं सकता । ऐसी नक्ति दार्शनिक विवेचनमें प्रयुक्त हो भी जाव, किन्तु फिर भी उसके शब्दार्थमें सार नहीं हैं । मानव-चेतनाके अभावमें आकाश-रूपी मानव-धारणा भी असंभव हो जायगी, यहाँ तक तो बात टीक है। किन्तु उससे आग उस कथनकी सत्यताको नहीं खींचा जा सकता । अब जसे आकाश है और उसको बनानेवाला मनुष्य नहीं है, वैसे ही वह महासत्ता भी है जिसके बोधको मनुष्य पाता है, लेकिन उस बोधको बना नहीं सकता। प्रश्न-व्यक्तिसे ईश्वरको वड़ा आप बतलाते ही हैं; और उसी व्यक्तिसे आकाश अर्थात् शून्यको भी बड़ा बताते हैं। किन्तु ईश्वर और आकाशमें कौन बड़ा है ? उत्तर-- आकाण क्या आपको दीखता है ? अगर दीखता है, तो इसी कारण वह ईश्वरसे कम हो गया । क्योकि ईश्वर दीखता तक नहीं । आकाश शून्य है न ? किन्तु शून्यकी शून्यता क्या है ? वही ईश्वर । आकाश आकाशसे भी अधिक ईश्वर है ।
SR No.010836
Book TitlePrastut Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1939
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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