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आकांक्षा और आदर्श
मान्यता उसका स्थान ले लेगी । परमात्मा में क्या कुछ नहीं समा सकता ? अनंतकालतक उसमें तो अप्राप्य हमारे लिए कुछ न कुछ शेष रहे ही चला जायगा । बूँद जब समन्दर में मिल जायगी, तब वह बेशक समन्दर हो जायगी और तत्र सवाल ही कुछ नहीं रहेगा । पर यों वह बूँद चाहे कितनी ही फैले, कितनी ही फूले, समुद्रता उसके लिए अप्राप्य ही बनी रहेगी । इसलिए समझद्वारा ईश्वरको पाना फैलने की कोशिश करके बूँदके समुद्र होनेके प्रयास करने जैसा है । बूँद अपनेको मिटा दें, तब वह इस क्षण भी समुद्र ही है । इसके अर्थ यह हैं कि समगित ईश्वरको बुद्धि-प्रयासद्वारा पाया न जायगा । अपनेको ( व्यष्टिको ) उसमें ( समष्टिमें ) खो देने से ही, यानी प्रेमके मार्ग से ही, उसको समष्टिको ) आत्मगत किया जाय तो किया जा सकता है ।
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प्रश्न - - किन्तु इस वारेमें एक बात पूछना चाहूँगा । वह यह कि ईश्वर हमारे आदर्श की प्रतिमा होनेके कारण क्या हमारी धारणाके अतिरिक्त कुछ और भी रह जाता है ? और धारणा हमारी बुद्धिसे नहीं तो हमारे व्यक्तित्व ( = Being ) से निर्मित तत्त्व है । तो फिर हमारी ही सत्ता (=Bring ) से अलग वह ईश्वर कौन सी चीज़ रह जाती है जिसकी उपमा समुद्र से दी गई ?
उत्तर - धारणा बुद्धि की उपज है । बुद्धि हमारा ( = Being का ) एक भाग है | बुद्धि सब नहीं है । वह कुल नहीं है ।
ईश्वरकी धारणा हम बनाने का निश्चय करके नहीं बनाते । जब हमारी चेतना मानो किसी विराट् स्पशंसे अभिभूत हो जाती है, तब लाचार हम उसे मान उठते हैं । बुद्धि भी तब विराटकी अनुप्रेरणा से कर्म-शील होकर उस संबंध में अपनी शक्ति के अनुसार एक धारणा रच चलती है । इस तरह हम देखेंगे कि मनुष्य अपने आदर्शका निर्माता होनेसे अधिक, मानो आदर्शके हाथों अपनेको सौंपकर, उसीको अपना निर्माता बनाना चाहता है । इसी अर्थ में कविकी कविता कविसे बड़ी है | मनुष्यका आदर्श मनुष्यसे बड़ा है ।
किसी ईश्वर-विश्वासीसे पूछकर देखिए अथवा कि किसी भी प्रकारके सच्चे विश्वासीसे पूछिए । वह यह न कह सकेगा कि उसने स्वयं अपने विश्वासको बनाया है, बल्कि वह तो यही कहेगा कि उसे यह विश्वास 'प्राप्त' ( = Revealed)