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महाबारावतार
___पशुओं का रोना सुनकर के पत्थर भी कुछ रो देता था।
पर पढे लिखे कातिल मुल्का कत्र हृदय रस लिन था । था उनका मन मरुभमि जहाँ करणारत का या नाम नहीं । थे तो मनुष्य पर मनुष्यता से था उनको कुछ नाम नही ।।
शूद्रोंको पूछे कोन जाति-मट में डुवे थे लोग जहाँ । वे प्राणी हैं कि नहीं इसमें भी होता था मन्दह वहाँ ॥ उनकी मजाल थी क्या कि कानम ज्ञानमत्र आने गं ।
यदि आव तो गोगा पिघलाकर कानान डाला जां॥
था कर्मकाडका जाल बिछा पड गय लोग थे बधन में । था आडम्बरका राज्य सत्यका पता न या कुछ जीवन में !! ले लिये गये ये प्राण धर्म कयी वस म की अचर्चा ।
सद्धर्म नामपर होती थी वम अन्याचारों की चर्चा ।।
पशु अबला निर्बल शूद्र मूकआहोंसे तुझे बुलाते थे । उनके जीवन के क्षण क्षण भी वन्सर मम बनत जाते थे । तेरे स्वागत के लिये हृदय पिवलाकर अश्रू बनात थे। ऑखोसे अश्रु चढाते ये ऑग्ख पथ बीच बिछाने ।
(८) तूने जब दीन पुकार मुनी सर्वस्त्र छोडा दौट आया ।
रोगीने सच्चा वैद्य दीनने मानो चिन्तामणि पाया |