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________________ ५२ ] सत्य-संगीत तू था मनुप्यता का पूजक या सारा जगत समान तुझे । तेरा बधुत्व विशाल रहा सम थे लक्ष्मण हनुमान तुझे ॥ केवट हो, कपि हो, शबरी हो तने सबको अपनाया था। जो जो कहलाते थे अनार्य छाती से उन्हें लगाया था । शबरी के जूठे बेर ग्रहण करने में नहीं लजाया था । नने पवित्रता गोत्र वर्म बस प्रेम-भक्ति में पाया था । कुल जातिपाति या उच्चनीच सबका रहस्य समझाया था। मानव का धर्म मिखाया या कुलमद को मार भगाया था। नने राक्षसपन नष्ट किया पर राक्षम नृपति बना था। मत्राट बना था पर तने साम्राज्यवाद ठुकराया था । दर्जनता के क्षालन में तु सजनता के लालन ने न । भगवती अहिंसा के टोना स्पोक परिपालन में तृ॥ मर मिटने को नगार ग्हा अन्याय अगर देखा नुने ॥ गयान मत्स का ही दुनिया का मचा बल लेग्वा नन । गनमताका नरनारमिन्ट जिमका असंख्य दल बल इलया। निगगर था कि तुझे अपने ही हाथों का बल था । पर निगमगर उठा अन्यार नहीं करने दगा । नागरगर मिटे गम पर साय नही मान दंगा ।।
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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