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महात्मा राम
जगकी पवित्रतम वस्तु सतीकी लाज नहीं हरने दूंगा। अत्याचारी दुष्टो से मैं पृथिवी न कभी भरने दूंगा ।
भजवलका कछ अभिमान न था वैभव भी तुझ न प्यारा था । भय न था लालसा थी न तुझे त निर्भयता की वारा था ।
भगवान सत्यने वरद हस्त तेरे ऊपर फैलाया था। भगवती अहिंसाने अपने अचल में तुझे बिठाया था ।।
विजयी बनकर साम्राज्य लिया फिर भी वनवासी बना रहा। लकाको ठुकराया तूने तू अनासक्ति में. सना रहा ॥
सर्वस्व त्याग करने में भी तूने न तनिक सकोच किया । , जनता-रजन मर्यादा के रक्षणको तूने क्या न दिया ।
कर्तव्य-यज्ञ की वेदीपर सीता का भी बलिदान किया । आँखों में आसू भरे रहे पर मुखको कभी नन्लान किया । तूने अपना दिल मसल दिया दुनियाके हित विषपान किया । तू सच्चा योगी बना रहा जीवन सुखका अवसान किया ।
(१३) आदर्श पुत्र था, त्यागी था, सेवा ही तेरा वर्म रहा । तूने विपत्तियों की वर्षाको हँस हँसकर सर्वदा सहा ।
पुरुषोत्तम और महात्मा तू घर घरमें ख्याति हुई तेरी । तेरे पद-चिह्न मिले मुझको इच्छा है एक यही मेरी ॥