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________________ १२४ ] सत्य-संगीत तेरा हक तेरा रूप न जाना मैंने । निराकार बनकर तू आया मगर नहीं पहिचाना मैंने । तेरा ॥१॥ मन मन में था तन तन में था। कण कण मे था क्षण क्षण मे था ॥ पर मैं तुझको देख न पाया, पाया नहीं ठिकाना मैने । तेरा ॥२॥ रवि शशि भूतल अनल अनिल जल । देख चुका तेरा मृरति-दल । मूरति देखी किन्तु न देखा, तेरा वहा समाना मैंने । तेरा ॥३॥ उरग नभश्चर जलचर थलचर । तेरी मूर्ति बने सब घर घर । उन सबने सगीत सुनाया, तेरा सुना न गाना मैंने । तेरा ||४|| पर जब तु मानव वन आया । तब तेरे दर्शन कर पाया ॥ तब ही परम पिता सब देखा, तेरा पूजन ठाना मैंने । तेरा !!५|| करुणा प्रेम ज्ञान वल सयम । वन्सलता दृढता विवेक शम ॥ देखे तेरे कितने ही गण, तत्र तुझको पहिचाना मैंने । तेरा ॥६|| तुझको परम पिता सम पाया । देखी सिर पर तेरी छाया ॥ तव ही पुलकित होकर ठाना, जीवन सफल बनाना मैंने ॥ तेरा रूप न जाना मैंने ॥७॥
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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