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________________ भगवति [ १२५ भगवति कल्याणकारिणि दुखनिवारिणि प्रेमरूपिणि प्राणदे । वात्सल्यमयि सुखदे क्षमे जगदम्ब करुणे त्राणदे ॥ भगवति अहिंसे आ यहाँ भले जगत पर कर दया । वीरत्व में भी प्यार भरकर विश्वको करदे नया ॥१॥ सारे नियम यम अग तेरे वस्त्र तेरे धर्म हैं । ये वस्त्र के सब रग दैगिक और कालिक कर्म हैं । गुणगण सकल भूपण बने चैतन्यमयि हे भगवती । हे शक्तिप्रेममयी अभयदे अमर ज्योति महासती ॥२॥ इजील हो या हो पिटक या सूत्र वेद पुरान हो । __ हो अथ आवस्ता व्यवस्था-शास्त्र या कि कुरान हो । सब हैं सरस सगीत तेरे दूर करते हैं व्यथा । सब धर्मशास्त्रों में भरी है एक तेरी ही कथा ॥३॥ वे हों मुहम्मद यीशु हों या बुद्ध हों या वीर हो । जरथुस्त हों कन्फ्यूसियस हो कृष्ण हों रघुवीर हों ।। अगणित दलारे पुत्र तेरे विश्व के सेवक सभी । तेरे पुजारी वे सभी समता न जो छोडें कभी ॥४॥ मातेश्वरी ऐश्वर्य अपना विश्व मे विस्तार दे । __ हो प्रेम-परिपूरित जगत ऐसा जगत को प्यार दे ॥ धुल जाय सारा वैर जिसमें वह सुधा की धार दे। सत्प्रेम का शृङ्गार दे यह घरद पाणि पसार दे ॥५॥
SR No.010833
Book TitleSatya Sangit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Satyabhakta
PublisherSatyashram Vardha
Publication Year1938
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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