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आत्म कथा . का ही हक रहे, कन्या अगर निःसन्तान मर जाय तो सनुगट वाली को सम्पत्ति न मिले आदि इस विषय में बहुत विचार किया जाना चाहिये । परन्तु इन सब बातों को आत्मकथा में स्थान नहीं मिल सकता । यहाँ तो सिर्फ संकेत मात्र किया गया है । जबरत यह है कि दहेज हुंडा आदि कानून से काफी बड़ा अपराध समझा जाय और इसको लेनेवाला पर्याप्त दंडनीय माना जाय ।
. आज तो हंडा के कारण त्रियों की इज्जत मातापिता के यहाँ और पतिक यहाँ काफी घटगई है। मानापिता के लिये तो वे जीवन का बोझ हैं, घर उजाड़नेवाली हैं इसलिये उनका सहज वात्सल्य होने पर भी वे चुभती हैं । पति के यहाँ इसलिये उनकी इज्जत कम है कि अगर मर जाँय तो दूसरी शादी होने पर फिर हुंडा मिल सकता है इसलिये उनके जीवन की पर्वाह क्यों की जाय ? इसलिये हुंडा या दहेज की प्रथा का निर्मूल नाश होना आवश्यक है। . इस प्रकार के पैसे से मुझे स्वाभाविक घृणा थी । यहाँ तक कि ससुराल. आने पर जमाई को रुपये आदि देने का जो रिवाज़ है उसको लेने में भी मुझे लज्जा आती थी । लेते समय ऐसा . लगता था मानों किसी से कुछ लाँच ले रहा हूं। कंजूसी के कारण . या आवश्यकता के कारण या इस कारण कि न लेने से ससुराल
के लोग नाराजी समझेंगे, भेंट तो ले लेता था परन्तु उस के बदले में कपड़े आदि इतना सामान ले जाता था जिससे वह लेना नफे 'की चीज न रहता था । हाँ प्रारम्भ में जब विद्यार्थी था, अपनी · कमाई का कुछ पैसा नहीं था तब कुछ नहीं कर पाता था ।