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आत्म कथा
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इसलिये दमोह के लोगों की दृष्टि में तो मैं पंडित हो गया था, जब कि उस समय तक मैं धर्मशास्त्र में सिर्फ रत्नकरण्ड श्रावकाचार के बारह श्लोक पढ़ा था । लोगोंने मुझे व्याख्यान के लिये खड़ा कर दिया । पर आज तक कभी व्याख्यान के लिये न तो खड़ा हुआ था और न इतना कुछ पढ़ा था कि व्याख्यान दे सकता । खड़े हो कर और तो कुछ न चना रत्नकरण्ड श्रावकाचार के श्लोक अर्थ सहित सुनाने लगा । जब बारह श्लोक पूरे हो गये तो मेरी गाड़ी रुक गई । उपसंहार करना तो दूर, इतना भी कहते न बना कि जो कुछ मुझे कहना था कह चुका अब बैठता हूं। बस, यों ही खड़ा का खड़ा रह गया । जब किसी ने कहा बैठ जाओ तो बैठ गया । उस समय इतनी शर्म मालूम हुई कि उस का असर कई महीने तक दिल पर रहा। और यह सोचता रहा कि कोई मौका मिले तो व्याख्यान देना सीखूं ।
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जब सागर पाठशाला में छात्रहितकारिणी सभा की स्थापना हुई तो मैं मंत्री बना और उसमें प्रति सप्ताह कुछ न कुछ बोलना शुरु किया । मंत्री था इसलिये रिपोर्ट में सब के व्याख्यानों का सार लिखता था। इस प्रकार वक्तृत्व और लेखन दोनों को उत्तेजन मिला ।
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सभा की तरफ़ अन्य विद्यार्थियों की रुचि थोड़े दिन तो रही, बाद में मिट गई। सभा में विद्यार्थी पाँच सात ही आते थे पर मैं तो दो विद्यार्थियों तक में व्याख्यान देता था। लेकिन यह अच्छा न मालूम हुआ इसलिये पं. गणेशप्रसादजी से शिकायत कर दी । उनने विद्या"र्थियों को खूब डाँटा । और जब बादमें विद्यार्थी मुझ पर बिगड़े कि तुमने पंडितजी से शिकायत क्यों कर दी ! तब मैंने साफ कहा
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