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आत्मकथा
दोनों का हर्ष हम एक ही अवसर पर मना लेते हैं ।
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यह थी मेरी बेशर्मी, जिसके बल पर मैं गालियों का तथा निन्दा आदि का सामना किया करता था । उस समय मैं हरएक आक्षेप का उत्तर दिया करता था । इस प्रकार के उत्तरों काः संग्रह किया जाय तो एक दिलचस्प पुस्तक वन सकती है । मुनि--- वेपियों के दोषों की आलोचना भी ऐसी ही दिलचस्पी से विनोदपूर्ण तथा तर्कपूर्ण भाषा में किया करता था । मुनिवेषियों को इससे बहुत परेशानी उठाना पड़ती थी और इसके लिये उनको और उनके अनुयायिओंको एक से एक बढ़कर छल से काम लेना
पड़ता था ।
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ज्योंही जैनजगत में उनके विषय में ऐसी कोई बात प्रकाशित हुईजिसके प्रगट होने से जनता पर मुनियों का प्रभाव कम हो जायगा त्यही उस कार्य को या रीति को बन्द किया जाता. आर फिर कहा जाता- कोई देखले, यह बात नहीं हैं; जैन-जगत झूठ लिखता
है । फिर जैन जगत् लिखता कि हमारा लिखना कहाँ तक सत्य था
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और फिर किस छल से यह वात बन्द की गई । पर छल से ही क्यों.' न हो सुधार किया इसके लिये धन्यवाद देता ।
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प्रारम्भ में ही इस आलोचना आदि का परिणाम यह हुआ कि सम्मेदशिखर से जब मुनिसंघ लौटा जब उत्तर भारत के लोगों ने न तो उन्हें आहार दिया न संघ का साथ दिया इसके लिये विरोधी विद्वानों को पर्चे वाँटने पड़े, लेख लिखने पढ़े, लोगों की अन्धश्रद्धा को उत्तेजित करना पड़ा।"