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सिवनी में कुछ माह
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मुझे असन्तोष हुआ । और इससे खेद और आश्चर्य भी हुआ कि उनने न तो मेरी बातों का उत्तर दिया न मेरी बातें मानीं । मैंने फिर पत्र लिखा कि मैं जैन हूं, समाज का नौकर हूं इसलिये आप मुझे धमका सकते हैं और कदाचित् रोटी के लिये मैं दब भी जाऊं पर अगर कोई जैनेतर विद्वान मेरे सामने ऐसे ही प्रश्न रखदे तो मैं क्या उत्तर दूं ? आप कोई उत्तर बताइये, धमकाने से काम न चलेगा ।
पर डॉट-डपट के सिवाय कोई उत्तर न मिला । इसका परिणाम यह हुआ कि मुझे अपने विचारों पर दृढ़ विश्वास होगया । इतना ही नहीं अपनी विचारकता पर भी दृढ़ विश्वास होगया । इस प्रकार का उत्साह भी आया कि मैं किसी विषय में स्वतंत्र विचार भी कर सकता हूं और वे विचार इतने मज़बूत भी हो सकते हैं कि बड़े बड़े विद्वान भी उन्हें न काट सकें ।
उन दिनों सिंघई. कुँवरसेनजी और स्व. श्री चैनसुखजी छावड़ा मेरे पास राजवार्तिक का स्वाध्याय करते थे । एक दिन उनने कहा कि " पं. रघुनाथदासजी (जैनगज़ट के सम्पादक) की चिट्ठी आई है जिस में उनने लिखा है कि सिवनी के युवकों में आप विधवाविवाह के विचार फैलाते हैं सो यह बात क्या ठीक है ?" यह कहकर उनने पं. रघुनाथदासजी की चिट्ठी भी दिखाई और फिरं कहा, "देखिये, आपकी उम्र छोटी है फिर भी जब आप हमें राज.: वार्तिक पढ़ाते हैं तब हम आपको गुरु ही मानते हैं जब गुरु ही ऐसे विचारों में बह जायगा तब शिष्यों की क्या दशा
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होगी ?"
मेरे विचारों
एक क्षणभर मैं घबराया, क्योंकि इतनी जल्दी का इतना कांड बन जायगा इसकी मुझे स्वप्नमें भी आशा न थी,