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आत्म-कथा समाज को मुझ से कुछ कहने का क्या अधिकार है, और कुछ यह भ्रमपूर्ण विश्वास कि जब मैं विजातीय विवाह विधवा विवाह को जैनधर्म के अनुकूल सिद्ध कर दूंगा तब समाज को भी मेरी बात मानना ही पड़ेगी। इन तीन कारणों से मैं कुछ निर्भय था । बात यह है कि अपनी अनुभव-हीनता या भोलेपन के कारण समाज की विचारकता पर मैं ज़रूरत से ज्यादा विश्वास रखता था-सब को अपने समान निप्पक्ष समझता था । इसलिये अपने विचारों को बिना किसी विशेष संकोच के लोगों से कहने लगा।
पर कुछ दिन बाद मुझे ऐसा मालूम हुआ कि अपने ये विचार विद्वानों के सामने रखना चाहिये । या तो वे इसका ठीक उत्तर देंगे जिससे मैं अपने विचार बदल लूंगा अथवा वे अगर ठीक ठीक उत्तर न दे पायेंगे तो मेरे विचार मानलेंगे । अपनी अनुभवहीनता के कारण मैं पंडितों को भी निःपक्षता और विचारकता के विषय में पूरा ईमानदार समझता था । .. मैंने दो बड़े बड़े विद्वानों के पास लम्बे लम्बे पत्र लिखे जिस में विस्तार के साथ विधवा-विवाह का समर्थन था और विवाहसंस्था के विषय में अपना व्यापक दृष्टिकोण बतलाया था। एक हफ्ते में दोनों के उत्तर आये । एक ने लिखा था "मैंने इन बातों पर विचार नहीं किया मैं तो तुमसे यही कहूंगा कि इन झंझटों में न पड़ो, आत्मशान्ति के लिये धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय करो आदि" दूसरे ने जरा रोष बताया था और इसप्रकार के विचारों से विद्वत्ता । को कलंकित न करने का उपदेश दिया था। दोनों ही उत्तरों से