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बनारस में अध्ययन
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• लिया इसलिये सागर पाठशाला का सम्बन्ध टूट ही गया । सन १९१७ में जैन न्याय मध्यमा की परीक्षा देकर मैं वहीं रह गया । जैन न्याय तीर्थ की परीक्षा दो वर्ष में देना थी इसलिये वीच के वर्ष में परीक्षा देने के लिये प्राचीन न्याय मध्यमा का कोर्स भी ले लिया । पर न्यायशास्त्र के विषय में मुझे कुछ अरुचिसी थी सब वितण्डावाद सा मालूम होता था। दर्शन के परिचय में रुचि थी पर सीधी बातों को टेड़ी करके कहना, दुसरे दर्शनों का अच्छा बुरा खण्डन करना यह सब पसन्द नहीं था । इसलिये न्यायशास्त्र का तो अध्ययन सिर्फ इसलिये किया कि न्यायतीर्थ की उपाधि मिल जाय और पंडिताई को छाप मुझ पर लग जाय । प्राचीन न्यायमध्यमा की पुस्तकें एक बार अध्यापक के मुँह से सुनली गई । मुझे आगे जैन न्याय तीर्थकी परीक्षा देना थी उसकी पहिली परीक्षा जैन न्याय मध्यमा मैं पास था इसलिये प्राचीन न्यायमध्यमा में फेल या पास.होने की जरा भी चिन्ता नहीं थी। जब परीक्षा देने पटना गया तब साथ में कोर्स की पुस्तकें नहीं ले गया, ले गया शतरंज की थैली। मेरे ही समान इस परीक्षा में पास होने से उदासीन एक विद्यार्थी और था दोनों बैठकर शतरंज खेला करते। हाँ, परीक्षा में दोनों दिन पचास पच्चीस पृष्ठ जरूर लिख आया, जैनन्याय के आधार से पृष्ट भरने में दिक्कत न पड़ी इस प्रकार व्यर्थ ही पास भी हो गया ।
मेग संत्र से प्रिय विषय था जैनधर्मशास्त्र, सर्वार्थसिद्धि तो मैं सागर पाठशाला में पढ़ चुका था बनारस में आकर परीक्षा दी तो सब से प्रथम आया, इनाम भी मिला। गोम्मटसार में भी मैं प्रथम आना चाहता था। पर मुझे धर्म पढ़ाने वाले जो अध्यापक थे