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(८५) नंद तो अस्थिर छे. वास्ते ते आनंदनी तो स्वप्नमां पण इच्छा करता नथी. एवो समकितनो प्रभाव छे. इहां कोइने संदेह थशे जे श्रेणिक राजाए क्षायक समकिती छतां केम कंइ पण व्रत कस्यां नथी ? तेम ज संसारथी आवी उदासीनता छतां केम व्रत ग्रहण कस्यां नहि ? ते विषे जाणवू जे श्रेणिक राजाए समकित पामतां पहेलां नरकनुं आयुष्य बांध्यु छे तेथी नरके जवाना छे तेथी त्यागभाव थयो नहि. पण तेमना हृदयमां तो त्यागभाव बनी रह्यो छे ने विरती तो पांचमे गुणठाणे थाय छे. वास्ते कंइ व्रत नहि करवाथी समकितमा दूषण नथी; पण एम बधा जीवने होय नहि. कारण जे मार्गानुसारीपणुं आवे छे, त्यांथी विरतीना भाव थाय छे. योगदृष्टिनुं स्वरूप कडुं छे, त्यां पांचमी दृष्टि पामे छे, त्यारे समकित पामे छे ने पहेलीथी ते चोथी दृष्टि सुधी मार्गानुसारीपणुं कर्तुं छे, तेमां पहेली दृष्टिमां ज व्रत प्राप्त थाय एम कहेलुं छे. वास्ते घणा जीवने नो यथाशक्ति विरतीना भाव थाय ज. कोइ जीवने अंतरायनो उदय होय तो व्रतने विषे वीर्य फोरवी शके नहि ने जेने वीर्यातरायनो क्षयोपशम थयो छे ते तो वीर्य फोरवी जे जे पर वस्तुनो त्याग बने ते करे ने श्रावकना गुणस्थान रूप व्रत तो पांचमे गुणस्थाने करे.
पांच, देशविरती गुणस्थान ज्यारे प्रगट थाय त्यारे अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभनो नाश थाय छे. तेनी साथे बीजी पण प्रकृति उदय बंधथी नाश थाय छे. ते कर्मग्रंथ जोवाथी जणाशे. ए गुणस्थाने देशथी अवतनो नाश थाय छे. तेथी समकित गुणस्थान करतां परमावनी इच्छा विशेष टले छे. संसारथी पण वधारे उदास थाय छे. खावा पीवा पहेरवा ओढवा धन धान्यनी इच्छा घटी जाय छे. मनमां तो संयमना भाव वर्षे छे पण पूर्वकर्मना जोरथी प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया, लोभनो उदय रह्यो छे तेथी संयम लइ शकता नथी, पण हृदयमांथी संयमनी भावना गइ नथी. संसारी काम करे छे ते वेठरूप करे छे. तेम विरतीमां पण आनंदादिक श्रावके बहु ज सख्ताइ करी छे.ते वात उपासक