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( ३५ ) आत्मा मलीन छे, दुर्गतिनां दुःख भोगववां पडे के अने आत्मानी शुद्धि थती नथी. परंतु जे पुरुषोने पुद्गलिक सुखनी इच्छा नथी अने आत्मिकधर्म प्रगट करवाने उद्यम करे छे तेमां शुभ जोगनी प्रवृत्ति थवाथी जे शुभ कर्म बंघाय तेनाथी आत्मधर्मने विन थतुं नथी. कारण जे जेम जेम गुणस्थान चडता जाय, तेम तेम पुन्यराशि वधती जाय छे, पण उपरना गुणस्थानमां तेनी स्थिति वधती नथी. कारण के, जे जे पुरुषोए श्रेणि मांडी छे तेने मुक्ति नजिक छे. वली पुन्यराशि वधारे अने स्थिति थोडी छे तेथी थोडा कालमां घणुं सुख भोगवी तेओ मुक्ति जाय छे. मुक्तिनी अटकायत थती नथी. जेम खेतरमां जुवार वावे छे तेने जुवारनो खप छे, कडबनो खप नथी, पण कडब सहजे उत्पन्न थाय छे. तेमां वली प्रथम तो कडब देखवामां आवे छे तेथी 'आ तो कडब ले' एम विचारी कडव काढी नांखे तो जुवार देखे ज नहि. तेम शुभजोगनी प्रवृत्ति करतां एम विचारे जे आ तो पुन्य करणी छे, एथी आत्माने गुण थशे नहीं एम समजी जे शुभ करणीनो त्याग करे, तेने आत्मिक धर्म प्राप्त थवानो नथी. तेम जोगप्रवृत्ति बंध थवानी नथी. तेथी अशुभ जोगनी प्रवृत्तिथी अशुभ कर्म बंधाशे अने आत्मा मलीन थशे. माटे संसार सुखने अर्थे शुभ अथवा अशुभ किया छांडवा योग्य छे. ए करणी आत्माने गुण कर्त्ता नथी. वली गुणस्थाननी हढ़ प्रमाणे शुभ क्रिया पण छंडाती जाय छे. जेम के श्रावक पौषध करे छे त्यारे द्रव्यपूजा प्रमुख करता नथी. अने मुनि महाराज पण द्रव्यपूजा करता नथी. वली मुनि महाराज ध्यान रूप थाय छे ते अवसरे आवश्यकादिक क्रियानो पण अभिलाष करता नथी, पोताना स्वभावमां ज लीन थइ जाय छे, परभावनो विचार करता नथी, आत्माना गुणपर्यायनी रमणता करे छे, चिदानंद सुखमां सदा मग्न रहे
पण ते ध्याननो काल अंतर्मुहूर्त्तनो छे. एक ध्यान वधारे वखत रहेतुं नथी माटे जे अवसरे ध्यान करे छे ते श्रवसरे शुभ क्रियामां चित्त नथी राखता ने ध्यानथी रहित थाय ते अवसरे जे जे गुणस्थाने जे जे क्रिया