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छे.. वली पडिलेहण पण ते ज माटे करे छे के वस्त्रमा कोइ जीव होय तो शरीरे लागवाथी तेने पीडा उत्पन्न थाय. वली प्रतिक्रमणनी क्रिया करे छे तेनुं कारण पण एम के के पोते आत्मस्वभावमा स्मणता करवाने इच्छे छे; परंतु जीवमे अनादिकालनो मोहप्रवृत्तिनो अभ्यास बनेलो छ तेना जोरथी जे न करवा योग्य प्रवृत्ति थइ जाय छे ते पोताना मनमा अनिष्ट लागे छे अने तेनी निंदा गर्दा तो कायम थया करे के परंतु प्रतिक्रमणमा विशेष प्रकारे करवान बने माटे प्रतिकमण करे छे. यथाश. क्ति तपस्या करे छे. तेमां पण भाव एवो वर्ते छे के आहार करवो ते म्हारो स्वभाविक धर्म नथी, पण हजु सुधी पुद्गलमा रह्यो ढुं एटले ज्ञान ध्यान सारी रीते थवा माटे आ शरीरने निरवद्य आहार आपुं छु. तो पण थोडी थोडी तपस्या करूं तो तेथी कांइ ज्ञान ध्यानमा हरकत थवानी नथी. उलटी शुभभावने योगे ज्ञान ध्याननी वृद्धि थशे माटे यथाशक्ति तपस्या करूं. आवी भावना होवाथी ज्ञानीने सहजे तप पण बनी श्रावे छे. माटे ज्ञानवंतने क्रियानी रुचि न थाय ए वात संभवती ज. नथी; पण जेओ मात्र लोकरंजनार्थे ज्ञान भणेला होय छे तेओने क्रियारुचि होती नथी, तो तेओ काइ जैनमार्गमां नथी. श्री विशेषावश्यकमा क्रियारुचि रहित जीवने अज्ञानी कह्या छे. तो तेवा अज्ञानी गुरु करवा योग्य होय नहीं. तेमनी संगत करवाथी तेमना जेवी विपरीत बुद्धि थाय अने मिथ्यात्व पमाय माटे भगवंतनी आज्ञा प्रमाणे चालनारने जे गुरु मानवा.
३४ प्रश्नः-गुरु महाराज न होय तो धर्मकरणी कोनी पासे करवी?
उत्तरः-जेम देवने अभावे देवनी मूर्ति, तेम गुरुने अभावे गुरुनी स्थापना जाणवी. तेमां मुख्य अक्ष, ते गोल आकारना कोडा समजवा. ते त्रण, पांच, सात के नव आवर्त्तवाला होय तो श्रेष्ठ गणाय छे. तेनुं फल श्री भद्रबाहुस्वामकृित स्थापनाकुलकमा विशेष प्रकारे वर्णवेलुं छे. श्री यशोविजयजी उपाध्याये स्थापनानी सज्झाय बनावी छे तेमां पण तेनुं