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( २३४ ) टी जाय छे अने रागदशा दूवाधी ते वस्तु उपर महारापणानी संज्ञा रहेती नथी, तेथी ते वस्तुनी क्रिया तेने जती नथी. अने जेणे एम वोशिराव्यं नथी, तेने तो राग द्वेषनी संज्ञा कायम रहे छे. ने ते संज्ञा का यम रहेवाथी राग द्वेषनां कर्म बंधाय, ने जेणे वोशिराभ्युं छे तेने बीजा भवमां अव्रत प्राप्त थाय छे. अव्रतानी क्रिया अव्रत होय त्यां सुत्री आवे, पण संज्ञा संबंधी नहिं आवे, संज्ञा उदासीन भावथी वोशिराववाथी उठी जाय छे. माटे वोशिरावनारने पाप आवतुं नथी.
प्रश्नः - १५६ विवेक ते शुं १
उत्तरः- देवने जाणे, देवने जाणें, मुक्तिने जाणे, संसारने जाणे, जडने जाणे, चेतनने जाणे, आत्मानो शुं स्वभाव के ? जडनो शुं स्व. भाव के ? आत्माने ग्रहण करवा योग्य शुं छे ? अग्रहण करवा योग्य शुं छे ? एवी रीते जे जे द्रव्य छे, तेना धर्म जाणी पोताना श्रात्माथी जे जे पर वस्तु जाणे तेने ग्रहण न करे. तेमां मग्न न थाय. जड व तुनुं कर्त्तापणं न करे. आत्माना धर्ममांज श्रानंदित थाय. जडधर्ममां जगए राग करे ते जडनी संगत छूटी नथी तेम कंइ पण प्रकारे परने ग्रहण न करूं एवी विशुद्धि नथी बनी, तेथी जे जे क्रिया करे छे ते जडनी : वृत्ति खशेडवाने, पण जडनी क्रियामां मन नथी थता. आहार विना चिच शांत नथी रेहतुं ते सारु आहार करे छे, पण तेमां प्रसन्नता नथी. तथा बनता सुधी तपस्या करे छे. आत्मानो अणइच्छा धर्म छे ते भावे छे; जे जे पुरुष आत्मधर्म बतायी गया छे तेने आधारे वर्त्तमानमां आत्मधर्म जे बतावे छे, तेनो उपगार भावे छे, पोतानी आत्मदशा प्र. गट थती नथी तेथी लघुता भावे छे. एवा तत्वज्ञानी पुरुषोनी सदा सं. गत करे छे. जे जे आत्मधर्म निर्मल थतो जाय छे तेमज मात्र खु. शबखती छे. उद्यम निमितो पण जे जे सेव्याथी आत्मधर्म प्रगट थाय तेवाज़ सेवी रह्या छे. विषयादिकनां निमित्त अत्माने घातकर्त्ता जाण्यां छे, तेथी ते निमित्तोथी हमेशा दूर रहे छे. " अने जेटलं दूर नथी रहे.
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