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( १४० ) द्धि पा तेम ज्ञान विशुद्व थाय. नवतत्वनुं स्वरूप विचारे तेमां छांडवा आदरवा योग्य पदार्थनुं स्वरूप विचारे, श्राठकर्मनो विचार करे. तेना सत्ता बंध उदय उदिरणानुं स्वरूप विचारे. नव अनुजोगथी आत्मानुं स्वरूप विचारे. संतपय ते आत्म पद छे ते छतुं छे. ए कृत्रिम वस्तु नथी. द्रव्य प्रमाणमां विचारे जे जीव अनंता छे ते सत्ताए तुल्य छे. पोत पोताना स्वभावे न्यारा छे. क्षेत्र विचारमां ज्यां सुधी शरीरमां रह्यो छे, त्यां सुधी शरीर प्रमाणे छे. ज्यारे शरीरथी न्यारो थाय छे, त्यारे जे अवगाहन होय ते प्रमाणे तेनो त्रीजो भाग संकोची सिद्धमां रहे छे. ते प्रमाणे श्राकाश प्रदेशनी स्पर्शना कंइक अधिक छे. कालथी श्रनादि कालनो छे ने जे जे सिद्ध पामे छे त्यारे संसारनो अंत थाय छे ने सदा सिद्धमां रहे छे. अभवि जीव अनादि अनंत संसारमां ज रहे छे. अंतरंग विचारतां जीवनो जीव थवानो नथी, ने पुदल संगमां रह्यो छे त्यां सुधी पुद्गलनां रूप अनेक बने छे, पण वस्तुपणे रूप पलटातुं नथी. भाग विचारतां सर्वे जीव अनंता छे, तेने अनंतमे भागे हुं हूं. भाव विचारतां पांच भाव छे, तेमां उदयिकभाव तेना एकवीश भेद छे ते कर्म संयोगे के तेनां नाम. अज्ञानपणुं जेथी पोताना आत्म स्वरूपथी भूली पर जे पुद्गलिक पदार्थ उपर म्हारापणानो ममत्वभाव बनी गयो छे, ए पहेलो भेद. बीजो भेद असिद्धता ते आत्मा सत्ताए सिद्ध स्वभाव छे. ते श्रवराइ जवाथी असिद्धता थइ छे त्रीजो भेद जे असयमपणुं आत्मस्वभावमां समभावमय रहेवुं ते छोडी विषयादिकमां राग द्वेषनी परिणती बनी तेथी धन शरीरमां कुटुंबादिकमां मूर्च्छितपणुं बन्युं छे, ते छये लेश्याना छ भेद तेमां प -हेली कृष्णलेश्या ते कर्म संयोगे माठा प्रणामनुं धनुं. जेम के छए लेश्यावाला जांबु खावा गया छे, तेमां कृष्णलेश्यावालाए कह्युं जे आझा ड़ कापी नांखो, जे पछी जांबु खाइए, एवा दुष्ट प्रणाम ते कृष्णलेशा. नीललेशावाला कहे जे ए वृक्षनी डालो कापो. एवा प्रणाम ते नीललेशा. कापोतलेशावालो कहे जे जे डाले जांबु छे ते कापो ए कापोतलेशा ने ते