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बढ़ाने का प्रयोजन कहीं नहीं है, इसलिए जिनमत का सर्व कथन निर्दोष है।"
उपर्युक्त प्रकार से जिनागम के अध्ययन का तात्पर्य वीतरागता है यह जानकर अपने अध्ययन के फलरूप अपने भावों में वीतरागता का पोषण होता हो तो समझना चाहिये कि अध्ययन ठीक प्रकार से हो रहा है और उस अध्ययन से अगर किसी भी प्रकार से रागभावों का पोषण होता हो तो समझना कि मेरे अध्ययन की प्रणाली में कहीं भूल हो रही है।
अध्ययन का लाभ उस अध्ययन का स्वयं को किस प्रकार लाभ हो इस संबंध में मो. मा. प्र. पत्र नं. २६८ में कहा है कि-"जैन शास्त्रों में अनेक उपदेश हैं, उन्हें जाने परन्तु ग्रहण उसी का करे जिससे अपना विकार दूर हो जावे, अपने को जो विकार हो उसका निषेध करने वाले उपदेश को ग्रहण करे।" पन नं. ३०२ में भी कहा है"विवेकी अपनी बुद्धि अनुसार जिसमें समझे सो थोड़े या बहुत उपदेश को ग्रहण करे परन्तु मुझे यह कार्यकारी है, यह कार्यकारी नहीं है-इतना तो ज्ञान अवश्य होना चाहिये, सो कार्य तो इतना है कि यथार्थ श्रद्धान ज्ञान करके रागादि घटाना। ........."इस प्रकार स्याद्वाददृष्टि सहित जैन शास्त्रों का अभ्यास करने से अपना कल्याण होता है।"
स्व-कल्याण करना ही प्रयोजन पत्र नं. ३०१ के अन्त में भी कहा है कि "उपदेश के अर्थ को जानकर वहां इतना विचार करना कि-यह उपदेश किस प्रकार है,