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जिम जोग व्रसन्न ॥ वि० ॥ ॥ भवना शनी भावना भ्रम भय हरणी जिनवर वरणी है ॥ भव अरणव में पोत समं स्वर्ग मोक्ष निस्सरणी है || दाना दिक तिहुं धर्म कल्प तरु उपजन अनुपम धरणी है । दिव शिव दाई करम वसु विध कतरण कर तरणी है ।। तिरे अनंत भव्य भावन से कतिपय का कहिये वरण | व्रिं ॥२॥ परसन चंदराज ऋषि पलमें पायो निरमल केवल ज्ञान || मामरुदेवी भावना भाय लह्यो निश्चल निः र्वाण | कपिल के वली भयो क्षणक में दादुर पाम्यों देव विमान | सुकुर भवन में भरत नृप पाम्यो पंचम ज्ञान विधान || प्रायो पँचम सुरग मिरग एलानट मेढ़े जनम मरन्नू ॥
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