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________________ चेतना लक्षण युक्त ] अजीव [ जड़ अचेतन | आस्रव [ पुद्गल स्कन्धों का अशुद्ध जीव के परिणामों के निमित्त से, जीव की ओर आकर्षित होकर आना] बंध [ उक्त आए हुए नवीन कर्म पुद्गल स्कन्धों का जीव के प्रदेशों को सब ओर से घेर कर पहिले के बंधे हुए कर्म पुद्गल स्कन्धों के साथ बंध जाना ] संबर [कर्म आने के द्वाररूप मिथ्यात्व कषाय अविरत प्रमाद व योगों को रोकना, तथा इसके प्रतिपक्षी सम्यक्त्व व्रत समिति गुप्ति आदि का पालन करना, उपसर्ग और परीषहों को, केवल उनके ज्ञाता दृष्टा रह कर शांति भाव से सहन करना ] निर्जरा [पहिले बंधे हुए कर्मों को तपश्चरणादि के द्वारा संवर पूर्वक क्रम से निजीर्ण करके खिराते जाना ] और मोक्ष [ सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से सदा के लिये छुड़ाकर अपनी असली शुद्ध अवस्था में जीव का प्राप्त हो जाना) ये सात तत्त्वों तथा पुण्य और पाप मिलाकर नव पदार्थों का यथार्थ श्रद्धान करके तथा इन नव तत्त्वों में से शुद्धात्मा को द्रव्यकर्म । ज्ञानावरणादि रूप ८ द्रव्य कर्म ] नोकर्म [शरीरादि ] व गगट्ठषादि भाव कर्मो से मिन्न जानकर श्रद्धा करके जो अपने आत्मा से पञ्च न्द्री व मन सम्बन्धी स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द व इनको इष्टानिष्ट चितवन रूप विपयों तथा कोध, मान, माया, लोथ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा [ग्नानि ] स्त्रीवेद [पुरुष से रमने की इच्छा ] पुरुप वेद [स्त्री से रमने की इच्छा] नपुंसक वेद [ स्त्री व पुरुप दोनों से रमने की इच्छा ] आदि कषायों को यथासंभव अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों के अनुसार व्रत संयमादि के द्वारा घटाते जाना यही पुरावासंव व
SR No.010823
Book TitleSubodhi Darpan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages84
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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