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( ४३ .) घी, अनाज आदि पूजने से दूध, दही, घी, अनाज नहीं मिलता, किन्तु व्यवसाय और पुण्य से ही मिलता है । इस लिये इन या ऐसे अन्य निर्जीव वस्तुओं की पूजा मान्यता नहीं करना चाहिए जैसा कि कहा है
छप्पय * क्षीण प्रतापी इन्द्र भाष्कर बातपकारी । तन पिन कहो अनंग इन्द्र पुनि अति. मदधारी॥ ब्रह्मा सुर तिय मगन गोपिकन में दामोदर । अर्द्ध अङ्ग में नारि धार है रहो मगन हर ॥ 'दीप' जगत के देव इम विषय कपायन युत निरख। तन, भज श्रीजिनदेव इक वीतराग सर्वज्ञ लख ॥ __अब यहाँ यह शंका हो सकती है, कि जब ऐसा है तो दिगम्बर जैन तीर्थकारों की प्रतिमाएँ न सिंद्ध क्षेत्रादि स्थानों की पूना बन्दनाभी नहीं करना चाहिए, क्यों ये भी तो जड़ हैं। उन को ऊपर के शाख विषयक उत्तर से समाधान करना चाहिए, अर्थात् जैनी लोग मूर्ति या पर्वतादि जड़ पदार्थों को कभी नहीं पूजते, जैनियों की पूजा पाठादि को उठाकर बांचिए और अर्थ पर दृष्टि डालिये, तो पता लग जायगा कि जैन मुर्ति पूजक नहीं हैं, किन्तु आदर्श के पुजारी हैं ( Jains do not worship idal but ideal) अर्थात् जिस मनुष्य के शरीर से उनके आराध्य देव तीर्थंकर आत्माओं ने परमात्म (सिद्ध या मुक्त) पद पाया है, उसी प्रकार के ध्यान, आसन, युक्त मनुष्याकार की वैराग्य दर्शक मूर्ति बनाकर रखते हैं, उसके देखने से