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दूसरी बात यह है कि जिन्होंने कदाचित् लक्ष्य तो पहिचाना है, किन्तु वे उसकी दिशा भूल रहे हैं और इसी लिए विपरीत दिशा में चाहे कितनी भी तीक्ष्ण गति से चला जाय, तो भी चलने वाला अपने लक्ष्य से अधिकाधिक दूर ही होता चला जायगा, उसे दिशा बदले सिवाय कभी भी अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा । इस लिए लक्ष्य की दिशा जानना आवश्यक है ।
तीसरी बात है, लक्ष्य को पहिचान कर तथा उसकी दिशा जानकर उसी दिशा में यथोक्त मार्ग से चलना, सों यहां भी भूल होती है, अर्थात् कितनेक, लक्ष्य और दिशा को जानते पहचानते हुए भी उससे विपरीत दिशा में नेत्र बन्द करके कोई शीघ्र गति से व कोई मन्द गति से चलते रहते हैं, अथवा कई freeमी होकर भाग्य के भरोसे जहां के तहाँ पड़े रहते हैं, और इस लिए वे भी लक्ष्य तक नहीं पहुंचते अतः लक्ष्य को पहिचान कर तथा उसकी दिशा जानकर अपनी शक्ति के अनुसार उसी दिशा में सीधे सरल तथा निष्कंटक मार्ग से चलना चाहिए ।
बस, इन्हीं तीन बातों को हम, सम्यग्दर्शन [ अपने लक्ष्य की पहिचान या उस पर दृढ़ श्रद्धा या विश्वास ] सम्यग्ज्ञान [ लक्ष्य की दिशा जानना अर्थात् सच्चा ज्ञान ] और सम्यक चारित्र [ लक्ष्य की दिशा में शक्त्यनुसार ठीक २ चलना ] अर्थात् - Right believe, right knowledge and right conduct' भी कह सकते हैं । बस, इन तीन के ठीक होने पर नक्ष्य की प्राप्ति अवश्य ही होती है, सो ही श्रीमदुमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है :