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________________ ...७. गोत्रकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणी उच्च वा नीच समझा जाता है उस को गोत्र कर्म कहते हैं इसके २ भेद हैं। ८ अंतसय कर्म-जिस कर्म के उदय से आत्मा की अनन्त शक्तिये रुकी हुई हैं उसको अंतराय कर्म कहते हैं इस के ५ भेद हैं। ": इस प्रकार सर्व मिलकर ८ मूल प्रकृति के भेदों के १५८ -इत्तर प्रकृति भेद होते हैं। .:. . . . . . . . . .. 'मइ सुत्र श्रोही मणके वलाणि नाणाणि तत्थ मइनाण । वंजण वग्गह चउहा, मण नयण विणिं दिय चउका ॥४॥:.: .........: ज्ञानके ५ भेद । : ...१ मंतिज्ञान-इंद्रियों और मनद्वारा जो ज्ञान आत्मा को "होता है वह मति ज्ञान है। ........ ::: २.श्रुतज्ञान-उपदेश से चेष्टा से वा पुस्तकों से जो ज्ञान आत्मा को होता है वह श्रुतंज्ञान है। ..: ....... ... ... ३ अवधिज्ञान-जो आत्मा में द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा वाला:ज्ञान इंद्रियों के बिना ही हो वह अवधि ज्ञान है । .....४ मनः पर्यवज्ञान-जिस से मनुष्यादि क्षेत्र में संज्ञी तिर्यंच पंचेंद्रिय और मनुष्य का ज्ञान हो वह मनः पर्यवज्ञान है । ' .
SR No.010822
Book TitleKarm Vipak Pratham Karmgranth
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages131
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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