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दयाके लिये जो काम हमें खुद करने चाहिये वह कार्य अगर कोई दूसरा करता हो तो, अपने को यह समझना चाहिये कि, यह हमाराही कार्य करता है; इस लिये ऐसे मनुष्यों को मदद पहुंचानेका ख्याल हमको हमेशह रखना चाहिये.
इसपर मुनिश्री वल्लभविजयजी महाराजने पुष्टि करते हुए कहाथा कि, श्रीमान् प्रवर्तकजी महाराजजीने जो कुछ " जैनेतर धर्मोद्यत पुरुषको यथाशक्ति मदद पहुंचानेका अपने साधुओंको ख्याल रखना चाहिये " फ़रमाया है, वह अक्षरशः सत्य है. यह अपना अवश्यही कर्तव्य है.
मान्य मुनिवरो ! मैं यकीन करता हूं कि, आपके उपदेशका परमार्थ मुनिमंडल तो समझही गया होगा; परंतु जो अन्य रंग विरंगी पगडियांवाले प्रेक्षकगण उपस्थित हैं. उनमें शायद कोई न समझा हो तो, वो समझ लेवें कि, साधुओंकी मदद से यही मुराद है कि, योग्य पुरुषोंको उपदेशद्वारा योग्य प्रबंध जहांतक हो सके करा देवें. साधुओंके पाससे उपदेशके सिवाय और धनधान्यादिकी मदद होही नहीं सकती ! क्यों कि साधुको रुपैया पैसा रखना जैनशास्त्रका हुकम नहीं है इतना ही नहीं वल कि, निष्पक्ष हो विचार किया जावे तो, किसी धर्मशास्त्री साधुको धन रुपैया पैसा रखनेकी आज्ञा नहीं ! जैन दृष्टिसे या पूर्वाचार्योंकी दृष्टिसे देखा जाय तो पैसा रखनेवाला दर असल साधुही नहीं माना जाता ! लोगों में भी प्रायः सुननेमें आता है कि, धन गृहस्थका मंडन है