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४६ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाळा. माया लइने आवे पण कोण ? कोइज दुर्भागी; अने ते पण असंभवित छे.
सत्संग ए आत्मानुं परम हितकारि औपध छे.
शिक्षापाठ २५. परिग्रहने संकोचवो.
जे प्राणीने परिग्रहनी मर्यादा नधी, ते पाणी मुखी नयीः तेने जे मळ्युं ते आई छे. कारण जेटलं जाय तेटलाथी विशेष प्राप्त करवा तेनी इच्छा थाय छे. परिग्रहनी प्रवळतामां जे कइ मळ्यू होय तेनुं मुख तो भोगवातुं नयी परंतु होय ते पण वखते जाय छे. परिग्रहयी निरंतर चळविचळ परिणाम अने पापभावना रहे छ; अकस्मात् योगयी एवीपापभावनामां आयुष्य पूर्ण थाय तो बहुधा अघोगनिनुं कारण थइ पडे. केवळ परिग्रह तो मुनीश्वरो त्यागी शके, पण गृहस्थो एनी अमुक मर्यादा करी भके. मर्यादा वायी उपरांत परिग्रहनी उत्पत्ति नयी अने एथी करीने विशेष भावना पण बहुधा यती नयी अने वळी जे मन्यु छे नेम संतोष राखबानी पृया पडछे, एयी मुखमां काळ जायछे. कोण जाणे लक्ष्मीआदिकमां केवीए विचित्रवा रहीछे के जेम जेम लाम थतो जायछे तेम तेम लोभनी वृद्धि यती जाय छेधर्म संबंधी केटटुं ज्ञान छतां, धर्मनी इहता उतां पण परिग्रहना पागमां पडेलो पुरुष कोइक ज छुटी शके छे। वृति एमांज लटकी रहेछे; परंतु ए वृत्ति कोइ काळे मुख