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४४ श्रीमद् राजचंद्र प्रणीत मोक्षमाला. छे; संसार ए पण एक प्रकारनो संग छ; अने ते अनंत कुसंगरूप तेम ज दुःखदायक होचायी त्यागवायोग्य छे. गमे ते जातनो सहवास होय परंतु जेवडे आत्मसिद्धि नयी ते सत्संग नथी. आत्माने सत्य रंग चहावे ते सत्संग. मोक्षनो मार्ग वतावे ते मैत्रि. उत्तम शास्त्रमा निरंतर एकाग्र रहे ते पण सत्संग छः सत्पुरुषोनो समागम ए पण सत्संग छे. मलीन वस्त्रने जेम साबु तथा जळ स्वच्छ करे छे तेम शास्त्र वोध अने सत्पुरुषोनो समागम, आत्मानी मलीनता गळीने शुद्धता आपे छे. जेनाथी हमेशनो परिचय रही राग, रंग, गान, तान, अने स्वादिष्ट भोजन सेवातां होय ते तमने गमे तेवो मिय होय तोपण निश्चय मानजो के, ते सत्संग नयी, पण कुसंग छे. सत्संगयी प्राप्त थयेलं एक वचन अमुल्य लाभ आपे छे. तत्वज्ञानीओए मुख्य बोध एवो कयों छे के, सर्व संग परित्याग करी, अंतरमा रहेला सर्व विकारथी पण विरक्त रही एकांतनुं सेवन करो. तेमां सत्संगनी स्तुति आवी जाय छे. केवळ एकांत ते तो ध्यानमा रहे के योगाभ्यासभां रहे, ए छे, परंतु समस्वभाविनो समागम जेमांची एक ज प्रकारनी वर्तनतानो प्रवाह नीकळे छे ते, भावे एक ज रूप होवायी घणां माणसो छतां, अने परस्परनो सहवास छतां ते एकांतरूप ज छे अने तेवी एकांत मात्र संवसमागममा रही छे. कदापि कोइ एम विचारशे के, विषयीमंडळ मळे छे त्यां समभाव अने सरखीति होवाथी एकांत कां न कहेवी ? तेनुं समाधान तत्काळ छे के, वेओ